Wednesday, September 28, 2011

21वीं सदी में इलेक्ट्रोनिक मीडिया: दशा और दिशा

21वीं सदी में इलेक्ट्रोनिक मीडिया: दशा और दिशा


डॉ. धर्मवीर चन्देल शोधार्थी,
राजनीति विज्ञान विभाग,
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर।
मो.: 09461800990, 09461617070

व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ के रूप में सर्वमान्य है। किसी भी भव्य महल के लिए मात्र तीन स्तम्भ ही उपयुक्त नहीं माने जाते, चौथे स्तम्भ की अनिवार्यता भी सर्वस्वीकृत है। इसलिए लोकतन्त्र को टिकाऊ, ठोस, संतुलित और सुन्दर होने के लिए चतुर्थ स्तम्भ का होना भी निहायत जरूरी है, यह चतुर्थ स्तम्भ ‘पत्रकारिता’ ही मानी जाती है। पत्रकारिता लोकतन्त्र के शेष तीनों स्तम्भों के क्रिया-कलापों पर पैनी नजर रखती है, इन्हें निरंकुश और जनविरोधी होने से बचाती है। यही कारण है कि जहां लोकतन्त्र नहीं है, निरंकुश शासन है, वहां के शासकों को पत्रकारिता से खतरा महसूस होता है। नेपोलियन का एक कथन इस सन्दर्भ में बहुत प्रसिद्ध है - ‘चार विरोधी अखबारों का भय एक हजार बेयोनत के भय से भी बड़ा होता है।’1 लोकतन्त्र एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसमें सभी लोगों को सम्मानपूर्वक अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की आजादी हो। जिसमें प्रेस स्वतन्त्र हो और मीडिया पर किसी तरह का दखल नहीं हो।2 वर्तमान में भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा है, आधुनिक भारत में करोड़ों लोग अपने दिन का प्रारम्भ समाचार पत्र और इलेक्ट्रोनिक चैनलों के समाचारों के साथ करते हैं। मीडिया ने भारत में स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व ही लोगों के मन में जगह बनाने का काम शुरू कर दिया था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (मराठा, केसरी), महात्मा गांधी (हरिजन, यंग इण्डिया, नवजीवन) डॉ. अम्बेडकर (मूक नायक), प्रेमचन्द (सरस्वती, हंस) सहित स्वतन्त्रता आन्दोलन के सेनानी अनेक समाचार पत्रों का सम्पादन करते थे। औपनिवेशिक भारतीय जनता में देश के प्रति आजादी का जज्बा उत्पन्न करने में समाचार पत्रों ने भी अपनी सशक्त भूमिका का निर्वाह किया है। मीडिया आज भी लोगों के मन में स्वस्थ नागरिकता का विकास करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। इसमें कोई शक नहीं है कि जनसंचार साधनों ने भारत में गरीबी, निरक्षरता, पिछड़ापन जैसे विषयों पर विस्तार से चर्चा कर शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया।3 वर्तमान दौर में मीडिया के माध्यम से ही हुकूमत के फैसलें जनता तक और आम-आवाम की आवाज सत्ता प्रतिष्ठान के गलियारों तक पहुँच पाती है। देश-दुनिया में घट रही हर छोटी व बड़ी खबर मीडिया के माध्यम से पल भर में ही जनता तक पहुँच जाती है। चाहे अमेरिका में 9/11 की आतंकी घटना हो या फिर भारत की 26/11 या फिर संसद पर आतंकी हमला हो या फिर गुजरात अक्षरधाम पर हुआ आतंकी घटनाक्रम। देश के किसी भी कोने में होने वाली आतंकी घटना की जानकारी पल भर में ही कोने-कोने तक पहुँच जाती है। जयपुर में हुए आतंकी हमले पर समाचार पत्रों ने लिखा- ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक और छोटी काशी के रूप में देशभर में विख्यात गुलाबी नगरी में 13 मई, 2008 को एक के बाद एक हुए पाँच बम धमाकों में पाँच दर्जन लोग मारे गए। बड़ी संख्या में लोग घायल हो गए, सड़कें खून से सन गई और मौत का कोहराम मच गया। महीनों तक लोग जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में जिन्दगी और मौत से लड़ते रहे। दहशतगर्दों ने जयपुर की शान्ति और गंगा-जमुनी संस्कृति को तोड़ने का प्रयास किया लेकिन वे नाकाम साबित हुए। आतंकवादियों ने इस बार रूख किया देश की औद्योगिक और माया नगरी मुम्बई की ओर, 26 नवम्बर, 2008 को होटल ताज, नरीमन हाउस, ओबेरॉय और ट्राइडेंट में आतंकवादियों ने कब्जे कर लिए, जिसमें भारतीय जवानों ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए व आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया।4 यह सही है कि मीडिया समाज सुधार का एक बड़ा ही सशक्त माध्यम है, समाज में फैली अनेक कुरीतियाँ चाहे वह घरेलू हिंसा हो या बाल श्रमिकों की समस्या या फिर तेजी से फेल रही ‘ऑनर कीलिंग’ की समस्या ही क्यों न हो? इन तमाम घटनाओं की जानकारी मीडिया से ही मिलती है। मीडिया की सक्रियता के कारण ही जेसिकालाल हत्याकाण्ड, प्रियदर्शिनी मट्ठू, डी.आई.जी. राठौड़ के प्रकरण सुर्खियों में रहे हैं। फिल्म अभिनेता सलमान खान की कार से फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कुचलने और राजस्थान में काले हिरणों को अपना शिकार बनाने के मामले में मीडिया ने ही देश की जनता के सामने सच रखा था। तहलका प्रकरण ने देश की सुरक्षा व्यवस्था, राजनेताओं के भ्रष्टाचार और उनके चरित्र का काला चिट्ठा खोला था। वर्तमान में मीडिया की सक्रियता से कई काले कारनामे उजागर हो रहे हैं, सफेदपोश लोग जेल की सीखचों के पीछे जा रहे हैं। संसद में सवाल पूछने के बदले सांसदों द्वारा पैसे मांगने का प्रकरण जांच में सही पाए जाने पर तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने उन दागी सांसदों को संसद से अयोग्य घोषित कर दिया था। यह भी सोलह आने सच है कि दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों के भ्रष्टाचार, ए. राजा, नीरा राडिया, आदर्श सोसायटी विवाद प्रकरण कहीं न कहीं मीडिया की सक्रियता के चलते उजागर हुए हैं। मीडिया संसद व विधानसभाओं के कवरेज के माध्यम से सांसद व विधायकों पर नजर रखती है। वह जनता को सूचित करती है कि उसके प्रतिनिधि संसद और विधानमण्डलों के अन्दर या बाहर उसके हितों के लिए किस प्रकार का किस स्तर का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ओर यह भी कि वे जनहित की आड़ में कितना स्वहित कर रहे हैं। पत्रकारिता लोकतन्त्र में जनमत बनाने, उसे दिशा देने का कार्य करती है। वह सूचनाओं के प्रकाशन-प्रसारण के आधार पर जनमत को शिक्षित, प्रभावित और प्रेरित करती है। 2 यह माना जा सकता है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता का विशेष महत्व है, मनुष्य अपने आस-पास की घटित होने वाली घटनाओं के बारे में सदा जानने का इच्छुक रहा है। उसकी जानने की यह इच्छा वर्तमान समय में विश्व की प्रमुख गतिविधियों तक बढ़ गई है। जानने की उत्कण्ठा जनसंचार के विविध साधनों से ही पूरी हो जाती है। पत्रकारिता का क्षेत्र काफी व्यापक और विस्तृत होता जा रहा है। पत्रकारिता दैनिक जीवन का ही एक हिस्सा बन गई है। यदि किसी दिन समाचार पत्र उपलब्ध नहीं होते हैं तो उस दिन जीवन में रिक्तता की सी अनुभूति होती है। वस्तुतः पत्रकारिता हमें समाज के विभिन्न वर्गों, समस्याओं तथा विचारों को समझने में सहायता देती है।5 वर्तमान में मीडिया के माध्यम से समाज की धड़कनों को महसूस किया जा सकता है। पत्रकारिता लोगों की सेवा करती है, अन्याय और दमन का प्रतिरोध करती है तथा रचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देती है। व्यापक अर्थों में यह समाज में उच्च मूल्यों और आदर्शों की प्रतिष्ठा में सहयोगी बनती है। मीडिया विशेषज्ञ प्रो. संजीव भानावत पत्रकारिता के तीन प्रमुख उद्देश्यों की चर्चा करते हुए बताते हैं -(अ) सूचना देना: पत्रकारिता के माध्यम से विश्व रंगमंच पर होने वाली घटनाओं की बारीक से बारीक जानकारी भी जनता तक पहुँच जाती है। इसके माध्यम से जनता को सरकार की नीतियों और गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती है। एक प्रकार से यह जनहितों की संरक्षिका है। (ब) शिक्षित करना: सूचना के अतिरिक्त पत्रकारिता का प्रमुख कार्य शिक्षित करना भी है। पत्रकार जनता के आँख-कान होते हैं। पत्रकार जो देखता है, सुनता है उसे मुद्रित तथा इलेक्ट्रोनिक माध्यमों से जनता तक पहुँचाता है। पत्रकारिता सूचना के साथ-साथ जनमत निर्धारित करने की दिशा में महत्वपूर्ण आधार भूमि तैयार करती है। सम्पादकीय स्तम्भों, अग्रलेखों, पाठकों के पत्र, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों इत्यादि विभिन्न माध्यमों से जनता को सामयिक तथा महत्वपूर्ण विषयों पर जानकारी देकर विविध तरीकों से जनता की मानसिक खुराक की पूर्ति की जाती है। देश की वैचारिक चेतना को पत्रकारिता ही उद्देलित करती है। इस प्रकार पत्रकारिता जनशिक्षण का प्रमुख माध्यम है। (स) मनोरंजन करना: मनोरंजन रेडियो तथा दूरदर्शन का प्रमुख कार्य है। इसके अतिरिक्त समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भी इस दृष्टि से काफी स्थान पाठकों के मनोरंजन सम्बन्धी सामग्री के लिए सुरक्षित रखते हैं। मनोरंजक सामग्री पाठकों को स्वाभाविक रूप से आकृष्ट भी करती है। मनोरंजन में कई बार शिक्षा का मार्मिक सन्देश भी छिपा रहता है।6 लोकतन्त्र का कोई भी स्तम्भ ऐसा नहीं हैं, जिसकी खूबियों और खामियों को पत्रकारिता ने सार्वजनिक नहीं किया है। विधानपालिका, कार्यपालिका ही नहीं न्यायपालिका को भी पत्रकारिता ने उसका असली चेहरा दिखलाया है। जज, सरकारी वकील भी यदि भ्रष्टाचार में डूबे हैं, तो ‘स्टिंग ऑपरेशन’ ने उनकी फजीहत कर दी है। छोटे-बड़े नौकरशाहों की रिश्वतखोरी के मामले उजागर कर उन्हें जेल की हवा खाने के लिए विवश किया है। यह भी कहा जाने लगा है कि जहाँ भ्रष्टाचार, दमन, शोषण, अन्याय और अत्याचार को पंख लगते हैं, पत्रकारिता उनके पर कुतरने में सक्षम होती है। इसमें निहित सामर्थ्य और शक्ति की परख अकबर इलाहाबादी के एक शेर में मौजूद हैं - ‘खीचों न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप से हो मुकाबिल तो अखबार निकालो।’ पत्रकारिता रणभूमि है, पत्रकार उसके यौद्धा, ऐसा यौद्धा जो तीर, तलवार, तोपों का मुकाबला सिर्फ कलम से करता है। इस युद्ध में कहीं कोई रक्तपात नहीं होता, किसी की लाश नहीं गिरती, लेकिन अद्भुत क्रांति होती है। एक अहिंसक क्रांति, जिसमें रंक राजा हो जाता है और राजा रंक की पक्ति में जा बैठता है।73 अब यह सवाल उठने लगा है कि मीडिया किसके लिए? किसके द्वारा संचालित और किसके हितों का रक्षक है? क्रिकेट की ‘मैच फिक्सिंग’ ने मीडिया की भूमिका को कटघरे में खड़ा करने का कार्य किया है। देश के बौद्धिक क्षेत्रों में बहस छिड़ी हुई है कि मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हस्तक्षेप की कितनी दूर दी जाए।8 अन्ना हजारे के रामलीला मैदान में चले अनशन पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के समर्थन की भूमिका इन दिनों विमर्श का विषय है। अन्ना हजारे के आन्दोलन में मीडिया की भूमिका पर दो तरह की चर्चाएं चल निकली हैं; कुछ विद्वान इसे मीडियाजनित आन्दोलन करार दे रहे हैं जबकि कुछ का कहना है कि मीडिया ने वास्तविक जन उभार को ही स्थान दिया है। कई लोगों को इस बात पर भी आपत्ति है कि टी.वी. एंकरों ने अन्ना से सम्बन्धित खबरें दिखाने के दौरान ‘एक्टीविस्ट’ के रूप में काम किया। वे कार्यक्रम प्रस्तुता के स्थान पर ‘आन्दोलनकारी’ अधिक नजर आए। अन्ना हजारे की यह क्रांति वास्तव में स्वतःस्फूर्त जनक्रांति थी या मीडियाजनित क्रांति? कुछ अन्ना समर्थकों का दावा है कि यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से बड़ा था और इसमें उस आन्दोलन की तरह राजनेताओं का कोई समर्थन नहीं था। जबकि जे.पी. समर्थकों का कहना है कि जे.पी. आन्दोलन को बिना संचार माध्यमों व राजनेताओं की मदद से हुआ कहीं बड़ा आन्दोलन था। वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण लिखते हैं कि ‘मीडिया ने कृत्रिम रूप से आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाया। टी.वी. एंकरपर्सन रिपोर्टर की भूमिका कम और एक्टिविस्ट की भूमिका ज्यादा निभा रहे थे। स्टूडियो में होने वाली वार्ताओं में टीम अन्ना के समर्थकों को सब कुछ बोलने की छूट थी और उनके विरोध के स्वर उठने नहीं दिए जाते।’ वे आगे लिखते हैं कि ‘जो टी.वी. चैनल गम्भीर से गम्भीर टॉक शो में हर दस मिनट बाद कॉमर्शियल ब्रेक लेते हैं, उन्होंने इस आन्दोलन के दौरान बिना कॉमर्शियल ब्रेक लिए कवरेज कैसे किया? यह कैसे सम्भव हुआ कि ओमपुरी का भाषण हो, किरण बेदी का मंच पर नाटक या प्रशान्त भूषण की प्रेस कांफ्रेस, सब बिना किसी अवरोध के घण्टों प्रसारित होते रहे? इस दौरान इन टी.वी. चैनलों को विज्ञापन न दिखाने की एवज में जो सैकड़ों करोड़ की राजस्व हानि हुई, उसकी इन्होंने कैसे भरपाई की?-9 नारायण आगे लिखते हैं कि ‘अब जब देश के टी.वी. मीडिया ने ‘प्रो-एक्टिव’ होकर सामाजिक सरोकार को टी.आर.पी. बढ़ाने का जरिया मान लिया है, तो यह माना जाना चाहिए कि भविष्य में पांच सितारा जिन्दगी, उपभोक्तावाद, अश्लील तथ्य या कॉमेडी शो जैसे कार्यक्रमों पर जोर न देकर ये चैनल समाज और आम-आदमी से जुड़े मुद्दों को ही प्राथमिकता देंगे और उसके लिए अपने व्यवसाय लाभ को भी छोड़ देंगे। यदि ऐसा होता है, तो वास्तव में यह मानना पड़ेगा कि भारत में क्रांति की शुरूआत हो गई है, लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो देशवासियों के मन में सवाल जरूर उठेगा कि टीम अन्ना के लिए कुछ टी.वी. चैनलों ने इतना उत्साह क्यों दिखाया?-10 कुछ ऐसा ही वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीस मानते हुए लिखते हैं कि ‘मुझे लगता है कि इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका नकारात्मक रही है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टी.आर.पी. के चक्कर में रोज रामलीला मैदान की भीड़ दिखाते रहे। समाचार चैनलों के एंकर प्रधानमंत्री, केबिनेट और संसद के बारे में उटपटांग बोलते रहे। संविधान में जनता के लिए सरकार है, लेकिन यह भी कहा गया है कि ‘वीद पीपुल्स ऑफ इण्डिया’ जनप्रतिनिधियों के माध्यम से काम करता है। पीपुल्स का मतलब यह नहीं है कि रामलीला मैदान या फिर कहीं और दस-बीस हजार की भीड़ इकट्ठा कर अपनी मांग को मनवाने के लिए सरकार पर दबाव डाले।11 कुछ लोग आशंका जताते हुए कहते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव (मई 2009) में जिस तरह से मीडिया ने पेड न्यूज, इम्पैक्ट फीचर के नाम पर प्रत्याशियों से जमकर धन वसूली की थी, कहीं यह उस तरह का कोई दूसरा खेल तो नहीं है। पेड न्यूज का चलन तो मीडिया में कई दशकों से रहा है। विज्ञापन खबरों की शक्ल में वर्षों से छप रहे हैं लेकिन मई-जून 2009 के लोकसभा चुनाव में इसका जितना खुला खेल हुआ है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। समाचार पत्रों ने विज्ञापन रेट्स कार्ड की तरह पेड न्यूज के कार्ड रेट्स भी छपवाए और खुले रूप से विज्ञापन खबरों के रूप में छपे। मीडिया की तमाम तरह की वर्जनाएँ, घोषणाएँ दम तोड़ती हुई नजर आई। कुछ लोग यह मानते हैं कि ‘पेड न्यूज’ की तरह मीडिया ने जिस तरह लोगों की भावनाओं को छुआ है, उसे आन्दोलन की शक्ल दी है, कालान्तर में उसके नकारात्मक पहलू से रुबरु नहीं होना पड़े। यह सच है कि मीडिया के कारण ही अन्ना हजारे के आन्दोलन को ऊचाइयाँ मिली। 16 अगस्त, 2011 को आमरण अनशन के लिए जे.पी. पार्क जाते हजारे को जिस तरह गिरफ्तार किया, तिहाड़ जेल भेजा गया और उसी रात बारह बजे तिहाड़ जेल से छोड़ने की घोषणा के पीछे भी मीडिया का दबाव ही दृष्टिगोचर होता है। वस्तुस्थिति से अवगत कराना मीडिया का धर्म है लेकिन उसका अतिरंजनापूर्ण फैलाव ठीक नहीं है। बहरहाल से कहा जा सकता है कि मीडिया ने जनमत निर्माण और लोकतन्त्र की मजबूती के लिए सार्थक प्रयास किये हैं।
सन्दर्भ सूची
1. वत्स जितेन्द्र, किरणबाला, जनसंचार माध्यम और पत्रकारिता, अमर प्रकाशन, लोनी गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश, सन् 2009, पृ. 380
2. चन्देल धर्मवीर, राजनीतिक पूर्वाग्रह और जनसंचार साधन: प्रभाव और परिणाम (राज यष्टि, राजनीति विज्ञान का जनरल वॉल्यूम - 3), अप्रैल-जून, 2010, पृ. 48
3. शम्मी नैय्यर, मास मीडिया एण्ड डेमोक्रेसी, अनमोल पब्लिकेशनस्, नई दिल्ली, सन् 2006, पृ. 9
4. चन्देल धर्मवीर, मानवाधिकार, नेहरू और अम्बेडकर, पोइन्टर पब्लिकेशन, सन् 2011, पृ. 26
5. भानावत संजीव, भारत में संचार माध्यम, पुलित्जर संचार अध्ययन एवं शोध संस्थान, जयपुर, सन् 2002, पृ. 1
6. पूर्वोक्त, पृ. 3-4
7. वत्स जितेन्द्र, किरणबाला, जनसंचार माध्यम और पत्रकारिता अमर प्रकाशन, लोनी गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश, सन् 2009, पृ. 380
8. जोशी रामशरण, थाप, सामयिक प्रकाशन दरियागंज, दिल्ली, सन् 2004, पृ. 203
9. नारायण विनित, जनक्रांति या मीडिया क्रांति (राजस्थान पत्रिका) सम्पादकीय, 4 सितम्बर, 2011
10. पूर्वोक्त, 4 सितम्बर, 2011
11. वर्गीज बीजी, प्रथम प्रवक्ता, पाक्षिक राष्ट्रीय पत्रिका, 1-15 सितम्बर, पृ. 17