Sunday, September 9, 2012

भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार

पुस्तक समीक्षा
भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार
सम्पादक: डॉ. धर्मवीर चन्देल, नत्थीलाल चतुर्वेदी
समीक्षाकर्ता: प्रो.शशि सहाय
 भारत में पंचायतीराज की विपुल धरोहर रही है। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत की धरती पंचायतीराज के लिए काफी उर्वरा साबित हुई, जहाँ पर फैसलें सर्वानुमूति व पंच परमेश्वर पद्धति के आधार पर लिए जाते थे। पंचायतीराज के विभिन्न आयामों पर हाल ही में डॉ. धर्मवीर चन्देल, नत्थीलाल चतुर्वेदी की ‘भारत में पंचायतीराज सिद्धान्त व व्यवहार’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित हुई है। जिसमें पंचायतीराज के ऐतिहातिक परिप्रेक्ष्य से लेकर वर्तमान समय तक के लेखा-जोखों का समावेश किया गया है। पुस्तक के सत्रह लेख पंचायतीराज के विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालते हुए इसे ‘पुष्प गुच्छ’ का रूप देते दिखाई देते है।    
 प्रथम लेख देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने ‘प्राचीन भारत में ग्राम स्वशासन: पंचायत व्यवस्था’ में प्राचीन भारत की समाज व्यवस्था एवं पाश्चात्य और भारतीय विज्ञानियों के मतों, प्राचीन समय में निर्वाचन एवं समय-समय पर हुए बदलाव, जन्मजात एवं सत्ता की निरंकुशलता पर रोक लगाने सहित वर्तमान समय में हुए बदलाव का विवेचन किया है।
 रामवल्लभ सोमानी ने प्राचीन राजस्थान में पंचायत व्यवस्था में ‘पंचकुल’ एवं ‘महाजन सभा’ नामक दो प्रमुख संस्थाओं एवं इनके अधीन कार्य कर रही प्रमुख संस्थाओं का उल्लेख कर पंचायतीराज को इतिहास के कालखण्ड से जोडने का कार्य किया है।
 पुस्तक के सम्पादक डॉ. धर्मवीर चन्देल ने ‘भारत में पंचायतीराज का उद्भव एवं विकास’ में पंचायतीराज के प्राचीनकाल, मध्यकाल, ब्रिटिशकाल एवं स्वतंत्रता के पश्चात् आए बदलाव, समय-समय पर विभिन्न आयोगों द्वारा किए गए सुझावों, 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में महिलाओं एवं पिछड़े वर्गों की आरक्षण व्यवस्था अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतीराज: 1996 का विस्तार अधिनियम एवं पंचायतीराज की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2009 ग्राम न्यायालय की स्थापना एवं महानरेगा पर प्रकाश डाला है। साथ ही, लेखक ने पंचायतीराज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य को शब्दों में बांधने का सुफल प्रयास किया है।
 प्रो. अशोक शर्मा ने ‘पंचायतीराज में सुशासन: न्यूनताओं का परिष्कार आवश्यक में’ पंचायतीराज व्यवस्था में सुशासन की अवधारणा एवं महत्व को बताते हुए सुशासन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को प्रस्तुत किया है। 73वें संवैधानिक संशोधन से आए क्रांतिकारी बदलाव का वर्णन करते हुए इन संस्थाओं को अधिक सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु आवश्यक सुझाव प्रस्तुत किए हैं। इन सुझावों पर चलकर पंचायतीराज की बहुत सी खामियां दूर हो सकती हैं।
 डॉ. सुनील महावर ने भारत में पंचायतीराज व्यवस्था और सुशासन में पाश्चात्य और भारतीय राजनीतिक चिन्तकों के प्राचीन समय से चले आ रहे सुशासन के विचारों को प्रस्तुत करते हुए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुशासन के आवश्यक घटकों का वर्णन किया है।
 संजय असवाल ने ‘गांधी का ग्राम स्वराज्य और भारत में पंचायतीराज’ में महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए महात्मा गांधी के सर्वोदय एवं अन्त्योदय की विवेचना की है।
 ‘महात्मा गांधी नरेगा में पंचायतीराज की भूमिका’ नामक लेख में डॉ. जनक सिंह मीणा एवं डॉ. धर्मवीर चन्देल ने ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज की ऐतिहासिक यात्रा, कार्यक्रम एवं योजनाओं का उल्लेख करते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अर्थात् वर्तमान स्वरूप तक की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्थिति को कसौटी पर कसने का प्रयास किया है। साथ ही, पंचायतीराज में नरेगा किस स्तर पर सफल हुआ है, इसकी भी गम्भीरता से पड़ताल की गई है।
 डॉ. योगेन्द्र राजोरिया एवं डॉ. मनहर चारण ने ‘महात्मा गांधी का पंचायतीराज मॉडल एक नजर में’ महात्मा गांधी के पंचायतीराज को वर्तमान समय में चल रहे पंचायतीराज से तुलना की गई है।
 लोकेश कुमार चन्देल ने ‘राजस्थान में पंचायतीराज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में’ स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद के पंचायतीराज के स्वरूप का वर्णन करते हुए विभिन्न समितियों द्वारा सुझाए पंचायतीराज की सिफारिशों एवं पंचायतीराज की त्रिस्तरीय व्यवस्था का उल्लेख किया है।
 डॉ. जनक सिंह मीणा ने राजस्थान में ‘पंचायतीराज संस्थाओं में निर्वाचन व्यवस्था: दशा एवं दिशा में’ पंचायतीराज के निर्वाचनों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. मीणा ने अन्त में पंचायतीराज संस्थाओं की वर्तमान स्थिति, दशा को इंगित करते हुए इसकी दिशा को दृष्टिपटल पर उकेरने का प्रयास किया है।
 डॉ. पूरणमल ने पंचायतीराज एवं महिला सशक्तिकरण में महिलाओं की राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका को बताते हुए सरकार द्वारा महिलाओं के विकास के लिए उठाए गए प्रयासों को बताया है।
 ‘73वां संविधान संशोधन व पंचायतीराज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका’ में पदमसिंह चौधरी एवं डॉ. शैलेन्द्र मौर्य ने देश की कार्यकारी स्थिति एवं भ्रष्टाचार को बताते हुए 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा महिलाओं को दिए एक तिहाई आरक्षण, 73वें संवैधानिक संशोधन की विशेषताओं का वर्णन महिलाओं को सशक्त, आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनाने के प्रयासों के प्रमुख सुझाव प्रस्तुत किए हैं।
 डॉ. मुकेश शर्मा ने ‘महिला एवं कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण में’ प्राचीनकाल में पंचायतीराज को बताते हुए वैदिक युग, मौर्यकाल, गुप्तकाल, मुगलकाल व ब्रिटिश शासन काल में पंचायतीराज व्यवस्था को प्रस्तुत किया है।
 प्रो. रामशरण जोशी ने ‘खाप पंचायतें पंचायती राज नहीं: एक विश्लेषण में’ भारतीय संस्कृति में पंच परमेश्वर की अवधारणा को बताते हुए बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर इशारा करते हुए कहा है कि आज खाप पंचायतें अर्थात् जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र विशेष की असंवैधानिक पंचायतें होती हैं, जिनमें अतार्किक एवं रूढ़िवादी विचारधारा से ओतप्रोत निर्णय लिए जाते हैं, जो कानूनी रूप में अवैध होते हैं। खाप पंचायतों के निर्णयों को पंचायतीराज नहीं मानना चाहिए क्योंकि पंचायतीराज में तार्किकता, वैधता, संवैधानिकता निहित होती है, जिसमें कानूनों की पालना की जाती है। उन्होंने हरियाणा एवं उत्तरप्रदेश का उदाहरण देते हुए खाप पंचायतों के निर्णयों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है।
 रामपाल जाट ने ‘पंचायतीराज में राजनीतिक दलों की भूमिका में’ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों की सुदृढ़ स्थिति का महत्व बताते हुए, लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों को वाहक के समान प्रस्तुत किया है। उनकी आवश्यकता को प्रकट करते हुए महिला जनप्रतिनिधियों की स्थिति का विवेचन किया है।
 रघुनाथ गुप्ता ने ‘बिहार में पंचायतीराज: तब से अब तक में’ बिहार में लिच्छवी गणतंत्र को प्रथम लोकतांत्रिक व्यवस्था बताया है। अपने आलेख में बिहार के पंचायतीराज व्यवस्था को विस्तार से समझाने का प्रयास किया है।

 डॉ. धर्मवीर चन्देल एवं नत्थीलाल चतुर्वेदी ने ‘पंचायतीराज आधी सदी का सफर: एक सिंहावलोकन’ के अन्तर्गत 2 अक्टूबर, 1959 पंचायतीराज की नींव रखने से लेकर सन् 2009 में स्वर्ण जयन्ती मनाए जाने तक की विकास यात्रा का उल्लेख किया है। इसमें यह भी बताया गया है कि इस सफर में पंचायतीराज व्यवस्था कितनी सफल व कितनी असफल रही। आरक्षित वर्गों व महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद उनकी स्थिति में कितना व किस तरह का बदलाव सामने आया है।
 डॉ. धर्मवीर चन्देल एवं नत्थीलाल चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार’ वर्तमान तक से संशोधनों से परिपूर्ण है। कुल मिलकार यह कहा जा सकता है कि पुस्तक में पंचायतीराज के सफरनामे में व्यापक संशोधन व सुझाव के बाद भी कई तरह की विसंगतियाँ और जाति व धन का बोलबाल बढ़ता जा रहा है। पंचायतीराज के फैसले कुछ वर्ग विशेष के लोगों के लिए लाभकारी न होकर उन लोगों के लिए भी हो जो समाज के हाशिए पर खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।  

Thursday, July 26, 2012

महिलाओं का यथार्थ मानवाधिकारों के सन्दर्भ में एक अध्ययन

महिलाओं का यथार्थ मानवाधिकारों के सन्दर्भ में एक अध्ययन

डाॅ. धर्मवीर चन्देल’

मनु कहते है -

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमंते तत्र देवता
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रिया’


 अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। पूजा का अर्थ है सम्मान से। तात्पर्य है कि जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहां सुख एवं समृद्धि का वास होता है। जहाँ इनका सम्मान नहीं होता वहाँ प्रगति, उन्नति की सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।

 राजनीतिक विचारक अरस्तू ने कहा है -

‘नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्धारित है।’

 साम्यवाद के प्रणेता कार्ल माक्र्स ने कहा -

‘किसी समाज की दशा-दिशा की स्पष्ट जानकारी इस सच्चाई को जानने से हो जाती है कि उस समाज में औरतों की क्या हालत हैं?’

 उपरोक्त तीनों कथनों  से पता चलता है कि नारी की स्थिति समाज जीवन में महत्वपूर्ण होनी चाहिए। नारी के मजबूत होने से परिवार, परिवार के मजबूत होने से समाज और समाज की मजबूती से राष्ट्र मजबूत होगा। बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि - ‘हिन्दू समाज की महिलाओं की प्रगति पर ही उस समाज की प्रगति का अंदाजा लगाया जाता है। अपना समाज तो अभी प्रगति के पथ पर है।’ लेकिन यथार्थ के धरातल पर महिला की स्थिति को देखते हैं तो हालात काफी डराने व दमघोटू से दिखाई देते हैं। जयशंकर प्रसाद ने महिला की त्रासद स्थितियों पर कलम चलाते हुए कहा -

‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नग-पग तल में।
पीयूष स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।’


 इन पंक्तियों में नारी के विशाल हृदय में लहराने वाली श्रद्धा के किनारे से उठने वाला अमिट विश्वास उसके जीवन का ही सर्वस्व नहीं, बल्कि मानव जीवन का सर्वस्व है। नारी जगत की जननी है, जो विश्व का पालन-पोषण करती है, परन्तु उसकी सदा निन्दा ही की जाती रही है। उसका सदैव उत्पीड़न एवं शोषण होता रहा है। समाज में विकास के लिए त्याग, तपस्या और बलिदान दिया है। पुलिस भी महिलाओं पर आक्रमण होते देखकर अनदेखा कर देती है। बलात्कार, दहेज उत्पीड़न, हत्या आदि के जो भी मामले आते हैं, उनमें से ज्यादातर सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं।1 राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने महिलाओं की साक्षरता दर पर चिन्ता जताते कहा ‘19वीं सदी के शुरू में भारत में साक्षरता की दर सिर्फ 5-35 फीसदी थी। आजादी के समय तक यह 18-33 और आज 64-84 फीसदी है। पर अफसोस की बात यह है कि महिला और पुरुषों की साक्षरता दर में काफी फर्क है। ग्रामीण इलाकों में तो यह अन्तर और भी बढ़ जाता है।’

 बहरहाल, भारतीय समाज में नारी की स्थिति समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलती रही है। समय के साथ उसकी स्थितियों में परिवर्तन आया है। वैदिक काल में नारी की स्थिति काफी मजबूत और प्रतिष्ठापूर्ण थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी स्थितियों में बदलाव होने लगा। वक्त की आंधी ने महिला की स्थिति कमजोर व बेबसीपूर्ण स्थिति में पहुँचा दी। वैदिक काल में पुरुषों की सभा में शास्त्रार्थ करने वाली महिला बाद के कालखण्ड़ में घर की चारदीवारी के बीच कैद रहने वाली गुड़िया बना दी गई। वैदिक समाज में महिलाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता थी, वे अपना सुयोग्य साथी स्वयं चुनती थी लेकिन बाद के दौर में नारी का विवाह कम उम्र में होने लगा। माना जाता है कि वैदिक युग में महिलाओं का स्थान सम्मानीय था। मध्यकाल में उनकी स्थिति दयनीय हो गई, जबकि आधुनिक काल में महिलाएँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझ रही है। अपने हिस्से का आसमां लेने के लिए प्रयासरत है। अपने हाथों ही एक लम्बी लाइन खींचने की तैयारी में है। प्राचीन काल में विधवाओं की स्थिति दयनीय नहीं थी। सती प्रथा का भी प्रचलन नहीं था। बाद के समय में विधवा विवाह को कुछ जातियों ने समर्थन नहीं किया जबकि विधुर के पुनर्विवाह को अपनाया गया। ताकि पत्नी के देहान्त के बाद पति को किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़े। समाज ने पुरुष के सुख की सम्पूर्ण व्यवस्था की जबकि महिला को सदैव तिरस्कृत समझा गया। पति की मृत्यु के बाद उस स्थान का महिमामण्डन कर आय के नए जरिए खोजे गए।
 देश की ताजा जनगणना सन् 2011 के अनुसार महिला की शैक्षणिक स्थिति काफी चिन्ताजनक है। देश में पुरुष साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर मात्र 65.46 प्रतिशत बनी हुई है। महिला साक्षरता दर को बढ़ाने के लिए उनमें जागरूकता व संगठित होने की आवश्यकता है। शैक्षणिक दृष्टि से महिला अब भी पिछड़ी हुई है और महिला शिक्षा के प्रसार की आज बहुत आवश्यकता है। पुरूष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति दिल दहलाने वाली बनी हुई है।2 मनुस्मृति में महिला का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया - ‘बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रखा गया है।’ हालांकि भारतीय संविधान ने नारी को पुरुष के समकक्ष माना है। सरकार की ओर से समाज में व्याप्त कुरीतियों मसलन दहेज प्रथा का विरोध, भ्रूण हत्या पर प्रतिबन्ध, लिंग परीक्षण पर पाबन्दी के प्रयासों का भारतीय समाज में कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि ये कुरीतियाँ ज्यादा फैल रही हैं। वर्तमान में महिलाओं को यह समझना होगा कि आज समाज में उनकी दयनीय स्थिति भगवान की देन न होकर समाज में चली आ रही परम्पराओं का परिणाम है। इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक वह खुद अपने सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में सुधार नहीं करेगी, तब तक समाज में उनका स्थान द्वितीय श्रेणी के नागरिक का ही बना रहेगा। महात्मा गांधी ने कहा था - ‘स्त्री तो पुरुष की सहचरी है, उसे पुरुष के समान ही मानसिक क्षमताएँ प्राप्त हैं। उसे पुरुष की गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है और पुरुष के समान ही स्वतंत्र और स्वाधीनता का अधिकार प्राप्त है। पुरुष और स्त्री का दर्जा बराबर है, लेकिन एक जैसा नहीं है। वे एक अनुपम युगल हैं और एक-दूसरे के पूरक हैं। उनमें से प्रत्येक एक-दूसरे की सहायता करते हैं, इस प्रकार एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’3 महिला सशक्तिकरण वर्ष 2001 के बाद महिलाओं में जबरदस्त जागृति आई लेकिन अभी भी सामन्तशाही के अवशेष भारतीय समाज में दिखाई देते हैं। आज भी कई परिवारों में लड़की के जन्म लेने के साथ ही उसके मुंह में तम्बाकू भरकर मौत के घाट उतार दिया जाता है। ग्वालियर में अपनी नवजात बेटी के मुंह में तम्बाकू भरकर उसे मौत के घाट उतार देने का मामला हाल ही में सामने आया है। ग्वालियर के उपनगर मुरार क्षेत्र निवासी नरेन्द्र सिंह राणा पर उसकी नवजात पुत्री की हत्या का आरोप है।’ नरेन्द्र की पत्नी अनीता ने 16 अक्टूबर को एक स्वस्थ बालिका को जन्म दिया। अगले दिन उसके पिता ने जिद कर पुत्री को अपने पास सुलाया और वह सुबह मृत अवस्था में मिली। पोस्टमार्टम में मृत्यु के कारणों का खुलासा नहीं होने पर बिसरा जांच के लिए सागर स्थित विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजा गया। जहाँ स्पष्ट हुआ कि बालिका की मौत निकोटिन (तम्बाकू) के कारण हुई है।4 घटना से पता चलता है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में प्रवेश करने के बाद भी लोग 15-16वीं सदी में जीवन गुजार रहे हैं। इसी तरह की एक अन्य घटना में राजस्थान के जोधपुर जिले के एक अस्पताल में नर्सिंग स्टाॅफ की गलती के कारण नवजात बच्चे बदल गए। बच्चे बदलने से विचित्र सी स्थिति पैदा हो गई। जन्म लेने वाले बच्चों में एक लड़का एवं एक लड़की थे। लड़के को लेने के लिए दोनों पक्ष तैयार लेकिन लड़की लेने की किसी की इच्छा नहीं। इस पर दैनिक भास्कर समाचार पत्र ने - ‘सात दिन से मां व दूध को बिलखती मासूम’ शीर्षक से प्रकाशित समाचार में बताया कि ‘उम्मेद अस्पताल के कर्मचारियों की गलती की सजा महज एक सप्ताह पहले जन्मी मासूम भुगत रही है। अस्पताल में बच्चों की अदला-बदली होने के बाद से यह बच्ची नर्सरी में भर्ती है और अस्पताल प्रशासन इसकी असली मां की तलाश में जुटा है। ऐसे में इसे 7 दिन से न तो मां का प्यार नसीब हो रहा है, न ही उसका दूध।’ दोनों ही माताएं बच्ची को लेने के लिए तैयार नहीं हुई। न्यायालय के दखल के बाद बच्ची का डी.एन.ए. टेस्ट कराया गया, जिससे पता चला कि पूनम कंवर बच्ची की असली मां है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि पूनम कंवर को बच्ची को दूध पिलाने की हूक नहीं उठी लेकिन इसके बाद भी उसके पति ने कहा कि ‘दूध पिला सकती है लेकिन बच्ची को स्वीकार नहीं करेंगे।5 इसी तरह इसी साल अष्टमी को जहाँ एक ओर कन्याओं का पूजन किया जा रहा था, वहीं जयपुर के संसार चन्द्र रोड पर एक कन्या को जन्म लेने से पहले ही मार दिया गया। ये पहली घटना नहीं, इस नवरात्र के आठ दिन में तीन बच्चों को जन्म से पहले और एक को जन्म के बाद उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी गई। इससे पहले भी संसार चन्द्र रोड पर ही कचरा पात्र के पास करीब पांच माह का कन्या भू्रण भी कपड़े में लिपटा हुआ मिला था। इसका पता कचरा बीन रही दो महिलाओं को चला, उन्होंने पुलिस को सूचना दी।6 विभिन्न कुप्रथाओं व समस्याओं ने महिलाओं को दयनीय व हीन अवस्था में पहुंचा दिया है। पर्दा प्रथा के कारण महिला घर में बंदी बना दी गई। दहेज प्रथा ने पुत्री के जन्म को ही अभिशाप बना दिया। बाल विवाह ने विधवा समस्या व वेश्यावृत्ति को जन्म दिया। समाज में कुप्रथाओं के बढ़ने से महिला की स्थिति अधिक जटिल और संकट में घिर गई।7 भारत में आजादी के बाद महिला-पुरुष की समानता को कानूनी आधार प्रदान किया गया। अनिवार्य शिक्षा, हिन्दू मैरिज एक्ट, दहेज निषेध कानून, सती निषेध, समान कार्य समान वेतन आदि कानूनों द्वारा महिला विकास के सकारात्मक कदम उठाए गए। लेकिन यह भी सच है कि कानून द्वारा सामाजिक सुधार सम्भव नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है - जनमानस में परिवर्तन, महिला पुरुष की दृष्टि में प्रगतिशील सुधार। आज आर्थिक सशक्तिकरण के समस्त प्रयासों के बावजूद वास्तविकता यह है कि कुछ शिक्षित व जागरूक महिलाएँ ही सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रही हैं, जबकि अशिक्षित व निम्न वर्ग की महिलाओं की स्थिति ज्यों की त्यों है। समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है, इस पर चिन्तन किए जाने की आवश्यकता है? दुनिया भर के नारी मुक्ति आन्दोलनों की गूंज और समता, समानता, आजादी जैसे छलावे भरे खूबसूरत नारे, भारत में तमाम महिला संगठनों की सक्रियता व प्रगतिशील कोशिश के बावजूद पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भ्रूण हत्याएँ, गर्भ परीक्षण की दुकान पर जन्म से पूर्व ही खात्मे की कोशिश, बाल विवाह, दहेज, मृत्युभोज, पर्दा प्रथा, बलात्कार, यौन हिंसा, अत्याचार, शोषण, बेटी को उच्च शिक्षा का अभाव भारतीय समाज में विद्यमान है। इसी तरह महिला विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने की प्रक्रिया जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर पुरुष के समान महिलाओं को अधिकार प्राप्त नहीं है।8
 भारतीय राजनीति में आजादी के इतने वर्षों बाद भी महिला की भागीदारी बहुत कम बनी हुई है। कई दशकों बाद भी महिला को अभी तक लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का इन्तजार है। यह भी एक तथ्य है कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के बिल को रखने के दौरान सदन में किस तरह के व्यवहार व दुव्यवहार की घटनाएं सामने आती हैं। कभी तो बिल सदन में रखने के साथ ही फाड़ दिया जाता है, तो कभी पास नहीं करने के नए-नए तरीके समझाए जाते हैं। देश के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा व कांग्रेस ने पार्टी के संगठन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पास कर रखा है लेकिन इस नियम का ईमानदारी से पालन नहीं हो पाता। फौरी तौर पर घोषणाएँ कर दी जाती हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उन्हें अमलीजामा नहीं पहनाया जाता। यह भी एक कड़वा सच है कि वे महिलाएं ही राज्य में मुख्यमंत्री बन पाई हैं, जिनकी पार्टी उनके जेबी संगठन या उनके दारोमदार पर चलती हैं। 28 राज्यों वाले देश में वर्तमान समय में कांग्रेस पार्टी से सिर्फ एक दिल्ली में शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनी हुई है जबकि भाजपा से तो वर्तमान समय में एक भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है। भाजपा की स्थापना सन् 1981 से लेकर अब तक सिर्फ तीन राज्यों में ही महिला मुख्यमंत्री रही है, जिसमें से मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती को तो बीच सत्र में ही हटना पड़ा था। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे जरूर पांच साल राज्य की मुख्यमंत्री रही। जबकि अपने दम पर पार्टी चलाने वाली उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती तीन बार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार और तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता ने अपने दम पर सरकार चलाई है।

 देश के प्रथम आम चुनाव 1952 से लेकर अभी तक सिर्फ 14 महिलाओं को ही मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ है। भारत में पहली बार अक्टूबर, 1963 में सुचेता कृपलानी को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद नन्दनी सतपते को कांग्रेस ने उड़ीसा का मुख्यमंत्री बनाया। वे उड़ीसा की पहली और अभी तक की आखरी महिला मुख्यमंत्री के रूप में जानी जाती हंै। गोवा में अगस्त, 1973 में शशिकला को अपने पिता दयानन्द की आकस्मिक मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री का ताज सौंपा गया। इसके बाद फिर कभी वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाई। आसाम में कांग्रेस पार्टी ने दिसम्बर, 1980 में सैयद अनवर तैमूर को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन वे करीब छह महीने ही मुख्यमंत्री रहे। तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एम.जी. रामचन्द्रन की मृत्यु के बाद ए.आई.डी.एम.के. ने उनकी पत्नी जानकी रामचन्द्रन को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वे 7 जनवरी, 1988 से 30 जनवरी, 1988 तक ही मुख्यमंत्री रह सकीं। बाद के दौर में ए.आई.डी.एम.के. को मजबूत कर जयललिता (1991-1966, 14 मई, 2001 - 16 सितम्बर, 2001, 2002-2006 और 2011 से निरन्तर) ने तमिलनाडू में सरकार बनाईं। हालांकि, जयललिता का शासन विवादों की छाया से मुक्त नहीं हो पाया, उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे।

 इसी तरह 13 जून, 1995 को मायावती ने भाजपा के समर्थन से पहली बार उत्तरप्रदेश में सरकार बनाई और देश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। इसके बाद वे (21 मार्च, 1997-12 सितम्बर, 1997, 2002-2003 और 2007 से लेकर 2012 तक) उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। देश के प्रख्यात राजनीतिक चिंतक एवं पत्रकार रामबहादुर राय ने मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार के पाँच वर्ष पूरे होने पर लिखा - ‘बसपा की मायावती सरकार से उत्तरप्रदेश को स्थिर शासन मिला, क्योंकि 2007 के विधानसभा चुनाव में 16 साल बाद एक दल को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था।’9 कांगे्रस पार्टी ने अप्रैल, 1996 से फरवरी, 1997 तक राजेन्द्र कौर भट्टल को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया। पंजाब के अब तक के इतिहास में वे इस सूबे की एक मात्र महिला मुख्यमंत्री के रूप में पहचान रखती हंै। इधर, बिहार के मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में फंसने और भ्रष्टाचार में धंसने के आरोप के चलते उन्होंने मुख्यमंत्री का पद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंपा। राबड़ी देवी को (1997-1999, 1999-2000 और 2000-2005) बिहार का तीन बार मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा के आपसी विवाद के चलते सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन कुछ महीने बाद ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा की करारी हार हो गई। भाजपा का बहुमत नहीं आया, इस कारण सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। सन् 1998 में कांग्रेस की शीला दीक्षित को दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी मिली तब से लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी हुई हैं। मध्यप्रदेश में उमा भारती 2003-04 तक भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री रहीं। राजस्थान में वसुन्धरा राजे 2003-2008 और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने वामपंथियों की 34 साल पुरानी सरकार को हटाकर अपना झण्ड़ा फहरा दिया। लोकसभा में 60 और राज्यसभा में 24 महिला सांसद जनता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

 इसी तरह 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया तथा लगभग 15 लाख महिलाओं को ग्राम पंचायतों तथा शहरी निकायों के चुनावों में भागीदारी का अवसर प्रदान किया। इसके फलस्वरूप देश के विभिन्न राज्यों में 43 प्रतिशत तक महिला प्रतिनिधि चुनकर सशक्तिकरण के मार्ग की ओर अग्रसर हुई। इस समय देशभर में कुल पंचायतों के लगभग 28 लाख, 10 हजार प्रतिनिधि हैं, जिनमें से लगभग 36 प्रतिशत महिलाएं हैं। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 4 जून, 2009 को संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए घोषणा की थी कि ‘पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक करने के लिए संवैधानिक संशोधन किया जाएगा।’ संविधान के अनुच्छेद 243(डी) के तहत यह संशोधन होगा। सम्पूर्ण देश में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद पंचायतीराज में महिलाओं की भागीदारी बढ़कर 14 लाख होने का अनुमान है।10

लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति: 



वर्ष कुल सदस्य संख्या महिला सदस्य संख्या महिला सदस्यों का प्रतिशत

1952 499 22 4.4
1957 500 27 5.4
1962 503 34 6.8
1967 523 31 5.9
1971 521 22 4.2
1977 544 19 3.3
1980 544 38 5.2
1984 544 44 8.1
1989 517 27 5.2
1991 544 39 7.2
1996 543 39 7.2
1998 543 43 7.9
1999 545 49 8.65
2004 539 44 8.16
2009 545 60 11.0

 उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर समझा जा सकता है कि लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति कभी भी ग्यारह प्रतिशत से अधिक नहीं रही।

केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं की उपस्थिति


 पिछले निर्वाचनों पर दृष्टि डालें और केन्द्रीय सरकार में मंत्रिपरिषद में स्थान बनाने वाली महिलाओं की संख्या सुखद नहीं है।

वर्ष मंत्रियों की कुल संख्या कुल महिला मंत्रियों की संख्या कुल निर्वाचित महिला सांसद
 केबिनेट मंत्री राज्य मंत्री (स्वतंत्र) राज्य मंत्री  केबिनेट मंत्री राज्य मंत्री (स्वतंत्र) राज्य मंत्री 

2002 32 41 00 73 02 06 00 08 49
2004 33 45 00 78 02 06 00 08 44
2009 34 07 37 78 03 01 04 08 60

 आंकड़ों से पता चलता है कि केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में सन् 2002, 2004 और 2008 की मंत्रिपरिषद में सिर्फ 8 महिलाओं को ही मौका मिल पाया है।

राजस्थान विधानसभा में महिला प्रतिनिधि

क्र.सं. कुल सदस्य संख्या चुनाव लड़ने वाली कुल महिलाएं निर्वाचित महिलाएं प्रतिशत

1952 100 04 02 1.25
1957 176 21 09 5.11
1962 176 15 08 4.54
1967 184 19 07 3.80
1972 184 17 13 7.06
1977 200 31 08 4.00
1980 200 31 10 5.00
1985 200 45 17 8.50
1990 200 93 11 5.50
1993 200 97 10 5.5
1998 200 69 15 7.0
2003 200 118 12 6.0
2008 200 155 25 12.5

 मुस्लिम महिलाओं की ना सिर्फ सामाजिक बल्कि राजनीतिक दृष्टि भी दर्दनाक बनी हुई हैं। भारत में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी निवास करती है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 13.5 प्रतिशत मुस्लिम है। मुस्लिम महिला प्रतिनिधियों की चर्चा करें तो प्रथम आम चुनाव से लेकर 14वें लोकसभा चुनाव तक 3 सदस्य से अधिक महिलाएँ चुनाव जीतकर पहुँच नहीं पाई।

क्र.सं. वर्ष चुनाव लड़ने वाली कुल महिला सदस्य निर्वाचित महिलाएँ मुस्लिम महिलाएँ


देश के विभिन्न राज्यों में पंजीकृत महिला पत्रकारों की सूची

1. राजस्थान 6.64 7. उत्तरप्रदेश 3.55
2. पंजाब 3.95 8. बिहार 9.56
3. पश्चिम बंगाल 6.25 9. उत्तराखण्ड 3.20
4. महाराष्ट्र 5.69 10. हरियाणा 4.59
5. मध्यप्रदेश 3.24 11. हिमाचल 1.64
6. गुजरात 5.40 12. मेघालय 16.67

  उपरोक्त आंकड़ों से खुलासा होता है कि स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व की बात कहने वाले मीडिया का आचरण कितना विपरीत है। होना यह चाहिए था कि स्त्री-पुरूष समानता, स्वतंत्रता, महिला सशक्तिकरण, महिला आरक्षण की बात कहने वाले मीडिया की कथनी और करनी में बड़ा अन्तर नहीं होता।
 महिलाओं की प्रतिभा व उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति को ध्यान में रखते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ‘यदि आप मुझे 500 पुरुष दें तो मैं राष्ट्र को एक वर्ष में बदल दूंगा, लेकिन यदि मुझे 50 महिलाएँ दें तो मैं कुछ ही महीनों में देश की तकदीर को संवार दूंगा।’ उनके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वे देश के नवनिर्माण में महिलाओं को कितना महत्व देते थे।
 समाजवादी चिन्तक डाॅ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा है कि - ‘भारतीय नारी का आदर्श सीता नहीं, द्रौपदी होना चाहिए।’ इस विचार के मूल में वे नारी को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं संघर्षशील बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि जो सामाजिक व राजनीतिक अधिकार पुरुषों को प्राप्त होते हैं, वे अधिकार भी महिलाओं को प्राप्त होने चाहिए। उन्हें नारी की परम्परागत छवि मसलन - मौन, शांत, सहचरी, निरीह से चिढ़ थी, वे नारी के स्वतंत्र अस्तित्व की कामना करते थे। हाल ही में अभिनेता आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम से महिलाओं पर लादी जा रही विद्रुपताएँ उजागर होती हैं। इसमें बताया गया है कि किस तरह पुरुष प्रधान समाज बालिकाओं के जन्म लेने के अधिकार को भी छीन लेना चाहता हैं। उनकी सांसें गर्भ में ही घोंट दी जाती हैं। नारी को आज भी अपनी बारी व आसमां का इंतजार है। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि नारी की स्थिति सुधारने के लिए किसी पीर, पैगम्बर, देव, हाकिमों की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है स्वयं के नजरिए में बदलाव की, उठकर खड़े होने की।

 शायद इसलिए मोहम्मद इकबाल ने कहा है - 

  ‘खुदी को कर बुलंद इतना
   के हर तकदीर से पहले
  खुदा बंदे से खुद पूछे
   बता तेरी रजा क्या है?



1. शेण्डे हरिदास रामजी, महिला अधिकार और शिक्षा ग्रन्थ विकास, सन् 2008, पृ. 122
2. भारत की जनगणना, 2011
3. चन्देल धर्मवीर, मानवाधिकार, नेहरू और अम्बेडकर, पोइन्टर पब्लिशर्स, वर्ष 2011, पृष्ठ 23
4. दैनिक नवज्योति, नवजात बेटी को तम्बाकू खिलाकर मारा, 11 अप्रैल 2012, पृष्ठ 1
5. दैनिक भास्कर, सात दिन से मां व दूध को बिलखती मासूम, जयपुर संस्करण 2 अप्रैल, 2012, पृष्ठ 1
6. पूर्वोक्त
7. जैन, एस. जैकेयूट (स), वूमेन इन पाॅलिटिक्स, ए.ओ. विले, इन्टर साइन्स पब्लिकेशन, न्यूयार्क, जोन विले एण्ड सन्स, 1974, पृष्ठ 5-6
8. मिश्र, एस.एन., जुलाई-दिसम्बर 2011, पृष्ठ 157
9. राय रामबहादुर, अंधे कुएं में पड़ा यह चुनाव, प्रथम प्रवक्ता, 1-15 मार्च, 2012, पृष्ठ 8
10. चन्देल धर्मवीर, चतुर्वेदी नत्थीलाल, भारत में पंचायतीराज सिद्धान्त एवं व्यवहार, आविष्कार पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, सन् 2012, पृष्ठ 183
 अर्थात् अपनी संकल्प शक्ति को इतना सशक्त बनाओ कि नियति के हर चैराहे पर खुद परवरदिगार तुम जैसे प्राणी से यह पूछे कि बताओ तुम्हारा मंतव्य क्या है? तुम्हारा लक्ष्य क्या है?
’ ’ ’
सन्दर्भ सूची
1. 1952 - 22 0
2. 1957 45 27 2
3. 1962 66 34 1
4. 1967 67 31 0
5. 1971 86 22 0
6. 1977 70 19 3
7. 1980 143 28 1
8. 1984 162 44 3
9. 1989 198 27 1
10. 1991 326 39 0
11. 1996 599 40 1
12. 1998 274 44 0
13. 1999 284 49 1
14. 2004 355 45 2
15. 2009 556 59 3

 मुस्लिम महिलाओं की लोकसभा में उपस्थिति पर विचार करें तो आंकड़ें उस सत्य से पर्दा उठाने के लिए काफी हैं कि मुस्लिम महिलाएँ निरन्तर पढ़-लिख कर समाज की मुख्य धारा में शामिल हो रही हैं। पहला, चैथा, पांचवा, दसवें, बारहवें लोक सभा चुनाव में एक भी महिला चुनाव जीतकर लोकसभा तक नहीं पहुँच पाई। इसी तरह तीन, सात, नौ, ग्यारहवें, तेरहवीं लोकसभा में चुनाव फतह कर सिर्फ एक-एक महिलाएँ ही लोक सभा तक पहुँच पाई। इसी तरह भारत में अनुसूचित जाति वर्ग की महिलाओं की स्थिति बड़ी चिन्ताजनक हैं। 21वीं सदी के दूसरे दशक में प्रवेश करने के बावजूद असमानता, अन्याय और शोषण का जीवन गुजारने को अभिशप्त हैं। उनके साथ न केवल घर में बल्कि समाज में भी असमानता का व्यवहार होता है। वे दोहरी असमानता तथा शोषण का शिकार हैं। दलित वर्ग की महिलाओं में पर्दा प्रथा आम प्रचलन में है। यहाँ तक माना जाता है कि दलित वर्ग की जो महिलाएँ घूंघट नहीं करती हैं, उन्हें बेशर्म, बेहया और बदचलन तक होने की उपमाएं दे दी जाती हैं। दलित महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी दयनीय है। लगभग 42 प्रतिशत महिलाएँ बेरोजगार हैं। आधे से अधिक महिलाओं की मासिक आमदनी एक हजार रूपए से कम है।
 लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया में भी महिलाओं की स्थिति नगण्य है। भारत में पुरुष व महिलाओं के बीच गैर बराबरी का आलम इन तथ्यों से उजागर होता है कि जिला स्तर पर महिलाओं की भागीदारी मात्र 2.7 प्रतिशत है। गैर सरकारी संगठन ‘मीडिया स्टेडिज ग्रुप’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार ओडिसा व झारखण्ड सहित छह राज्यों व दो केन्द्र शासित प्रदेशों में जिला स्तर पर मीडिया में एक भी महिला पत्रकार पंजीकृत नहीं हैं। इसके अलावा अखिल भारतीय स्तर पर पंजीकृत पत्रकारों की संख्या महज 329 हैं। इस मामले में आंध्रप्रदेश अव्वल है, जहाँ जमीनी स्तर पर 107 महिला पत्रकार हैं।
 राजस्थान में प्रथम विधानसभा चुनावों 1952 से लेकर वर्ष 2008 तक हुए तेरह विधानसभा चुनावों पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि प्रदेश में महिलाओं की जनसंख्या लगभग आधी है इसके बावजूद विधानसभा में प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य रहा है। हालांकि राजस्थान के सामन्तशाही वाले प्रदेश में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष भी महिलाएं रहीं हैं, इसके बावजूद उनकी उपस्थिति नाममात्र की बनी हुई है।
 भारत में लोकसभा निर्वाचन में महिलाओं की भागीदारी की बात करते हैं तो इनकी स्थिति अत्यन्त कमजोर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् निर्वाचन की शुरूआत 1952 से लेकर लोकसभा चुनाव 2009 तक की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि लोकसभा में निर्वाचित होकर पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या वर्ष 2009 में सर्वाधिक 60 रही अर्थात् 11 प्रतिशत महिलाएं निर्वाचित हुई, जो कि अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। महिलाओं के राजनीति में आगे नहीं बढ़ने देने के अनेक कारण हैं-राजनीतिक दल महिलाओं को राजनीति में आगे बढाने की बात तो करते हैं लेकिन उनकी इच्छाशक्ति नहीं है। साथ ही, वे पुरुष प्रधान समाज की भूमिका को कम नहीं होने देना चाहते। कई राजनीतिक दलों के नेता सोचते हैं कि महिलाओं को टिकट देने से यदि वे निर्वाचित होंगी तो पुरुषों का राजनीति से सफाया हो जाएगा। 
 भारत में लोकसभा के प्रथम चुनाव 1952 में हुए। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा कुल सदस्य संख्या 552 से अधिक नहीं होगी। वर्तमान में लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 हैं, जिसमें दो आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं। लोकसभा में प्रथम निर्वाचन से आज तक के निर्वाचनों में महिला सांसदों के निर्वाचन की स्थिति निम्नानुसार रही हैं-

Wednesday, May 2, 2012

भारत में महिला सशक्तिकरण: दशा और दिशा

भारत में महिला सशक्तिकरण: दशा और दिशा


डाॅ. धर्मवीर चन्देल’’

‘‘यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’’
            अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। यहां नारी को देवी के रूप में देखा गया है। भारत में स्त्रियों की दशा सदैव एक जैसी नहीं रही अपितु समय एवं काल के साथ परिवर्तन आते गए। किसी युग में नारी को सम्मान दिया गया तो कहीं उसका अपमान, उत्पीड़न, अत्याचार एवं जुल्म ढ़ाने की सभी हदें पार कर दी गईं। महिलाएं समाज में अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का शिकार होती रही हैं, जिनमें हैं - कन्यावध, भ्रूण हत्या, सती प्रथा, जौहर, डाकण प्रथा, क्रय-विक्रय, वैश्यावृत्ति, दास प्रथा, बाल विवाह इत्यादि। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सपेरा नृत्य की पहचान बनाने वाली कालबेलिया समाज की गुलाबो, जिसे कि समाज की नवजात लड़कियों को जिन्दा दफनाने को कन्या धर्म मानने की कुप्रथा का शिकार होना पड़ा, को जन्म के एक घण्टे बाद ही जमीन में दफना दिया था परन्तु उसकी मौसी ने गुलाबो को जमीन से निकाल कर पाला और उसी गुलाबों ने आज दुनिया में अपनी प्रतिभा के बल पर महिलाओं व समाज का मान बढ़ाकर नेतृत्व प्रदान किया है।
            भारत में आज भी सामाजिक ताना-बाना ऐसा है जिसमें अधिकांश महिलाएं पिता या पति पर ही आर्थिक रूप से निर्भर करती हैं तथा निर्णय लेने के लिए भी परिवार में पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। महिलाओं को न तो घर के मामलों की निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाता है और न ही बाहर के मामलों में। विवाह से पूर्व वे पिता व विवाह के बाद पति के अधीन रहते हुए जीवनयापन करती हैं। हालांकि देश के संविधान में महिलाओं को सदियों पुरानी दासता एवं गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के प्रावधान किए गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 21, 23, 24, 37, 39(बी), 44 तथा अनुच्छेद 325 स्त्री को भी पुरुषों के समान अधिकारों की पुष्टि करते हैं।
महिला सशक्तिकरण
            सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि सशक्तिकरण क्या है? सशक्तिकरण का तात्पर्य है शक्तिशाली बनाना। सशक्तिकरण को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक असमानताओं से पैदा हुई समस्याओं एवं रिक्तताओं से निपटने के रूप में देखा जा सकता है। इसमें जागरूकता, अधिकार एवं हकों को जानने, सहभागिता, निर्णयन जैसे घटकों को लिया जाता है। अब हम महिला सशक्तिकरण को पैलिनीथूराई के शब्दों में देखते हैं - महिला सशक्तिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज के विकास की प्रक्रिया में राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर मान्यता दी जाती है।1
            लीला मीहेनडल के अनुसार महिला सशक्तिकरण - निडरता, सम्मान और जागरूकता तीनों शब्द महिला सशक्तिकरण में सहायक हैं। यदि डर से आजादी महिला सशक्तिकरण का पहला कदम है, तो तेजी से न्याय से उसकी आवश्यकता पूरी हो सकेगी। यदि महिलाओं को वास्तव में न्याय दिलाना है तो उनकी जांच-परख प्रणाली को और अधिक कार्यकुशल बनाना होगा तथा अराजकता फैलाने वाले तत्वों को सजा देनी होगी।2
            महिलाओं के लिए डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर का कथन है कि भारतीय नारी श्रम से नहीं घबराती किन्तु आंसुओं की चिन्ता करते हुए वह रोटी, असमान व्यवहार, शोषण से अवश्य डरती है। इसमें बाबा साहेब ने महिलाओं की वास्तविक वेदना को मुखरित किया है। महिला सशक्तिकरण की अवधारणा बहुआयामी है। यह कोई पुरुष निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष विमर्श है और इसके लिए पुरुषों को भी आगे आना होगा। महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण में शिक्षा की अहम भूमिका है। यह महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए प्रथम एवं मूलभूत साधन है क्योंकि महिला के शिक्षित होने पर जागरूकता, चेतना आएगी, अधिकारों की सजगता होगी, रूढ़ियां, कुरीतियां, कुप्रथाओं का अन्धेरा छंटेगा और वैचारिक क्रान्ति से प्रकाश पुंज फूट निकलेगा। शिक्षा के माध्यम से महिलाएं समाज में सशक्त, समान एवं महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज करा सकती हैं। शिक्षित महिलाएं न केवल स्वयं आत्मनिर्भर एवं लाभान्वित होती हैं अपितु भावी पीढ़ियां भी लाभान्वित होती है। शिक्षा एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे न छीना जा सकता है और न ही बांटा जा सकता है। दूसरी ओर ऐसा हथियार भी है जिसके बल पर कोई भी युद्ध लड़ा जा सकता है, अब चाहे वह शोषण, असमानता, अन्याय, अनाचार के विरूद्ध ही क्यों ना हो।
            महिलाओं की स्थिति में सुधार के समय-समय पर अनेक प्रयास किसी न किसी रूप में होते रहे हैं। भक्तिकाल में नारियों को पुरुषों के समान भक्ति के योग्य माना, जिसके फलस्वरूप अनेक महिला सन्तों ने विशेष स्थान बनाया जिनमें प्रमुख हैं - मीराबाई, मुक्ताबाई, केसमाबाई, गंगूबाई व जानी। अकबर ने बाल विवाह, बेमेल विवाह, सती प्रथा को रोकने की दिशा में कार्य किया। राजा जयमल की विधवा को अकबर ने सती होने से रोका था तथा पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क ने अपनी आलमदारी में इस प्रथा के विरूद्ध आदेश प्रसारित करवाए। महिलाओं की दशा को सुधारने में अनेक समाज सुधारकों ने महती भूमिका निभाई। जिनमें प्रमुख थे - राजाराममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, वीर सांलिगम, दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, ज्योतिबा फूले, केशवकवे, बहरामजी मालाबरी, गोपाल कृष्ण आगरकर, हरिदेशमुख इत्यादि। महिला समाज सुधारकों में पण्डित रमाबाई, रमाबाई रानाडे, स्वर्ण कुमारी देवी, रानी स्वर्णमयी, सावित्री बाई फूले, आनन्दीबाई जोशी ने अपना योगदान दिया।
            भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिन महिलाओं ने अपने प्राणों की आहूति देकर इस देश की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें हैं - राजकुमारी अमृतकौर, गन्नोदेवी, मीरा बेन, सुचेता कृपलानी, कमला देवी, मार्गर कासिम, सुहासिनी गांगुली, बेरी बेन गुप्ता, कमला देवी चटोपाध्याय, सरोजदास नाग, सुशीला, जमुनाबाई, दुर्गाबाई देशमुख, कस्तूरबा गांधी, बेगम हजरत महल, शान्ति घोष, सरोजनी नायडू, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, लक्ष्मीबाई, अरूणा आसफ अली, मैडम भीकाजी कामा, रानी चैन्नईया, दुर्गा देवी वोहरा, प्रीतिदत्त पोद्दार, मीमाबाई, इन्दूमति सिंह, रानी अवन्तिबाई, रानी ईश्वरी कुमारी, मीरा पन्ना, रेशू मेन, कुमारी मैना, लाडो रानी, कल्याणी दास, शोभारानी आदि।
महिलाओं की स्थिति
            शिक्षा सम्पूर्ण अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करके विकास और उन्नति के मार्ग खोलती है। भारत में महिला एवं पुरुष की शिक्षा में विभेदीकरण पाया जाता है। लड़की को पराया धन की संज्ञा देकर उसके सभी अधिकारों का हनन हो जाता है क्योंकि संकीर्ण विचारधारा एवं सीमित ज्ञान के कारण स्वयं महिलाएं भी ऐसा दृष्टिकोण रखती हैं और लड़कियों के साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है। खाना, पहनावा, प्यार एवं स्नेह, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय आदि में खुला भेदभाव आज भी देखा जा सकता है। वैश्विक परिदृश्य पर एक नजर डाले तो यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार महिला साक्षरता की स्थिति विश्व के कुछ देशों में इस प्रकार है -
क्र.सं. देश  साक्षरता (प्रतिशत)
1          ब्राजील    97.9
2          रूस  99.8
3          नाईजीरिया 86.5
4          चीन 98.5
5          भारत (2011)           65.46

भारत में साक्षरता (महिला)
क्र.सं. वर्ष  साक्षरता (प्रतिशत)
1          1951    8.9
2          1961    15.4
3          1971    22.0
4          1981    29.8
5          1991    39.3
6          2001    53.7
7          2011    65.46


भारत में साक्षरता की स्थिति
            वहीं वैश्विक लिंगानुपात पर दृष्टि डाली जाये तो कुछ देशों की स्थिति निम्नानुसार है -
क्र.सं. देश  लिंगानुपात
1          भारत 940
2          नेपाल    1041
3          ब्राजील    1025
4          जापान    1041
5          वियतनाम 1020
6          चीन 944
7          अमेरिका  1029
8          नाईजीरिया 1016
9          इजराइल  1000
10        रूस  1140
11        फ्रांस 1041
12        वैश्विक औसत लिंगानुपात  990





विभिन्न देशों में लिंगानुपात
            भारत में लिंगानुपात की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि उक्त विभिन्न देशों के लिंगानुपात पर दृष्टि डाले और विचार करें तो कुछ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसे क्या कारण हैं कि रूस में 1000 पुरुषों पर 1140 स्त्रियां है अथवा नेपाल, जापान एवं फ्रांस में लिंगानुपात 1041 क्यों है? अमेरिका में 1029, ब्राजील में 1025, वियतनाम में 1020, नाइजीरिया में 1016, इजराइल में 1000 लिंगानुपात क्यों है? चीन में 944 और भारत में 940 है जबकि वैश्विक औसत लिंगानुपात 990 है। हमें उन सभी कारणों, घटकों एवं नियोजन पर गहन चिन्तन करना होगा जिनसे उक्त प्रश्नों का उत्तर खोजा जा सके और भारत में लिंगानुपात की दयनीय स्थिति को बेहतर बनाया जा सके। हमारे देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति में भी बहुत अधिक अन्तर है जैसे केरल में सर्वाधिक जबकि हरियाणा में न्यूनतम लिंगानुपात है।
            महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो खूब बना दिये हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व गृहणियां भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग 1.5 लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं जबकि इसके कई गुण दबकर ही रह जाते हैं। विवाहित महिलाओं के विरूद्ध की जाने वाली हिंसा के मामले में बिहार सबसे आगे है, जहां 59 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई, उनमें 63 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों की थी। दूसरे नम्बर पर राजस्थान 46.3 प्रतिशत एवं तीसरे स्थान पर मध्यप्रदेश 45.8 प्रतिशत है।




भारत में लिंगानुपात
            भारतीय परिप्रेक्ष्य में लिंगानुपात को देखा जाए तो सदैव 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या उससे कम ही रही है। वर्ष 1951 से लिंगानुपात पर दृष्टि डालें तो इसमें ऊतार-चढ़ाव आते रहे हैं, परन्तु कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए जिसे निम्न तालिका में देखा जा सकता  है -
क्र.सं. वर्ष  लिंगानुपात
1          1951    946
2          1961    941
3          1971    930
4          1981    934
5          1991    927
6          2001    933
7          2011    940



            महिला शिक्षा के बाद दूसरा प्रमुख घटक है स्वास्थ्य। स्वस्थ महिला स्वस्थ बच्चे को जन्म देती है। महिलाएं अनेक बीमारियों से ग्रसित होती हैं, वहीं वे कुपोषण, अल्प रक्तता, हीमोग्लोबिन की कमी आदि का शिकार होती हैं। भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्री-पुरुष की समानता की दुहाई देने वाले हमारे समाज में बीमार होने पर महिलाओं को गम्भीर स्थिति में ही अस्पताल ले जाया जाता है। आज भी देश में प्रसवपूर्व सेवाएं शोचनीय दशा में हैं। केवल 53.8 प्रतिशत को टिटनेस टाक्साइड के टीके मिल पाते हैं, 40 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं का रक्त चाप लिया जाता है। अभी भी 2/3 प्रसव घर पर ही हो रहे हैं। केवल 43 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की सेवाएं प्राप्त हैं। शिशु जन्म के उपरान्त भी महिलाओं को बहुत कम और कन्या शिशु के मामले में कोई देखभाल उपलब्ध नहीं होती।3
            महिलाओं में आज भी अन्धविश्वास एवं रूढ़िवादी प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी है। निरक्षर अथवा कम पढ़ी लिखी महिलाओं की तो दूर की बात उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं भी पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए सैकड़ों तंत्र-मंत्र एवं उपाय करती हैं। झाड़-फूंक, भूत-प्रेत, तांत्रिक बाबाओं के भंवर जाल में फंस कर नरबलि चढ़ाने को भी तैयार हो जाती हैं। ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा और तर्काधारित जागरूकता के माध्यम से ही अन्धविश्वास को दूर किया जा सकता है।
            रोजगार के क्षेत्र में भी महिलाएं अभी तक पिछड़ी हुई हैं परन्तु धीरे-धीरे इस दिशा में निरन्तर संख्या बढ़ रही है। भारतीय राज्यों में महिलाओं को सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान अलग-अलग है और कुछ सेवाओं के लिए, केन्द्र की सेवाओं में भी आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं। निजी सेवाओं में जिनमें होटल इण्डस्ट्री, एयर होस्टेस, रिसेप्सनिस्ट, माॅडल जैसे क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व बना हुआ है। दूसरी ओर प्रशासनिक सेवा में मात्र तीन प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं। विश्वभर में सबसे ज्यादा वर्किंग वुमंस भारत में हैं, इसमें अब सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सर्वाधिक महिलाएं जा रही हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार 30 प्रतिशत महिलाएं साॅफ्टवेयर इण्डस्ट्री में एवं 10 प्रतिशत महिलाएं सीनियर मैनेजमेंट में कार्यरत हैं। भारत में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि ऊँचे पदों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है। हृाूमन रिसोर्सेज कंसल्टिंग और आउटसोर्सिंग एओन हेविट इण्डिया ने हाल में विभिन्न उद्योगों की 200 से अधिक कम्पनियों का अध्ययन किया। भारत के काॅलेजों में आट्र्स/काॅमर्स/ इंजीनियरिंग संकाय में 40 प्रतिशत स्नातक महिलाएं हैं और अध्ययन में पता चला है कि कम्पनियां महिला कर्मचारियों की भर्ती को व्यापारिक लाभ के रूप में देखती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी/आईटीईएस क्षेत्र में यह विशेष रूप से किया जाता है, जहां भर्ती के स्तर पर 30 प्रतिशत महिलाओं को चुना जाता है। रीटेल जाॅब्स में भर्ती स्तर पर भी महिलाओं को वरीयता दी जाती है लेकिन उत्पादन एवं सेल्स में महिलाओं का प्रतिशत 10 के आसपास है। मध्यम स्तर के प्रबंधन में महिलाओं का अनुपात कम हो जाता है (6 से 10 प्रतिशत आईटी क्षेत्र में) और वरिष्ठ प्रबन्धन में तो यह न्यूनतम हो जाता है (3 प्रतिशत से भी कम)। निदेशक बोर्ड स्तर पर तो महिलाओं की मौजूदगी 1 प्रतिशत से भी कम है। अध्ययन में 50 प्रतिशत से अधिक सीईओ का कहना था कि अगले पांच वर्षों में महिलाओं के वरिष्ठ प्रबन्धन तक पहुंचने की उम्मीद की जाती है।4
            भूमण्डलीकृत पूंजीवादी बाजार तंत्र द्वारा स्त्री मुक्ति के नाम पर प्रचारित विभिन्न प्रचार एवं मूल्य इसके एक आदर्श उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण बाजार द्वारा आयोजित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के पक्ष में प्रायः कहा जाता है कि इनसे स्वस्थ रहने व सुन्दर दिखने की जागरूकता में वृद्धि होती है किन्तु स्त्री को एक सुन्दर देह के रूप में दर्शकों (पुरुषों) के समक्ष प्रदर्शित किया जाता है। इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि स्त्री की स्वतंत्रता और अभिमान के नाम पर आयोजन स्त्री एक देह के पुरुषोचित पूर्वाग्रह को ही पुष्ट करता है।5
            एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक लाख पच्चीस हजार महिलाएं गर्भधारण के पश्चात् मौत का शिकार हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष एक करोड़ बीस लाख लड़कियां जन्म लेती हैं लेकिन तीस प्रतिशत लड़कियां 15 वर्ष से पूर्व ही मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। गर्भवती महिलाओं पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 72 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं निरक्षर हैं। ऐसी स्थिति में वे गर्भधारण करने की उम्र, पोष्टिकता, भारी काम, काम के घण्टों, स्वास्थ्य जांच आदि से वंचित रहती हैं और सब कुछ भगवान पर छोड़ देती हैं। अब महिलाओं को समझना होगा कि आज समाज में उनकी दयनीय स्थिति भगवान की देन न होकर समाज में चली आ रही परम्पराओं का परिणाम है। इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक वह स्वयं अपने सामाजिक स्तर पर आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेगी, तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा।
            स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हमारी कामकाजी जनसंख्या में से 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी हैं तथा उसी हिसाब से मजदूरी प्राप्त कर रही हैं। दूसरी ओर देखते हैं तो पता चलता है कि महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनकी गणना ही नहीं होती जैसे - चूल्हा -चैका, बर्तन, खाना, सफाई, बच्चों का पालन पोषण आदि। महिलाएं एक दिन में पुरुषों की तुलना में छः घण्टे अधिक कार्य करती हैं। आज विश्व में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं जबकि वे केवल एक प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक हैं। भारत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी निम्नानुसार रही हैं -
क्र.सं. वर्ष  कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी
1          2006-07           40 प्रतिशत
2          2007-08           43 प्रतिशत
3          2008-09           48 प्रतिशत
4          2009-10           48 प्रतिशत
5          2010-11           48 प्रतिशत



            महानरेगा में कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी में राजस्थान अग्रणी रहा है, जहां महिलाओं की भागीदारी 67.6 प्रतिशत रही हैं।
भारत में महिलाओं की शासन व्यवस्था में भागीदारी
            लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली के साथ-साथ भारत एक गणराज्य भी है और शासन व्यवस्था का स्वरूप संसदात्मक है। भारतीय शासन व्यवस्था में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व तो दूर की बात है, इसे कोई स्वीकारना ही नहीं चाहता जिसे महिला आरक्षण विधेयक स्थिति से समझा जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 8 मार्च, 2010 को संसद एवं विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत राजनीतिक भागीदारी के लिए महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। यह विधेयक पिछले कई दशक से अधिक समय से लम्बित था परन्तु इसको मूर्त रूप देने के लिए लोकसभा में पारित होना शेष है। इस दिशा में कई बार प्रयास हुए परन्तु राजनीतिक दलों में इच्छाशक्ति के अभाव के चलते आज तक पारित नहीं हो पाया है।

लोकसभा में महिलाएं
            भारत में लोकसभा के प्रथम चुनाव 1952 में हुए। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा कुल सदस्य संख्या 552 से अधिक नहीं होगी। वर्तमान में लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 हैं, जिसमें दो आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं। लोकसभा में प्रथम निर्वाचन से आज तक के निर्वाचनों में महिला सांसदों के निर्वाचन की स्थिति निम्नानुसार रही -
वर्ष  कुल सदस्य संख्या   महिला सदस्य संख्या महिला सदस्यों का प्रतिशत
1952    499      22        4.4
1957    500      27        5.4
1962    503      34        6.8
1967    523      31        5.9
1971    521      22        4.2
1977    544      19        3.3
1980    544      38        5.2
1984    544      44        8.1
1989    517      27        5.2
1991    544      39        7.2
1996    543      39        7.2
1998    543      43        7.9
1999    545      49        8.65
2004    539      44        8.16
2009    545      60        11.0



केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाएं
            भारत में लोकसभा निर्वाचन में महिलाओं की भागीदारी की बात करते हैं तो इसकी स्थिति अत्यन्त कमजोर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् निर्वाचन की शुरूआत 1952 से लेकर अन्तिम लोकसभा चुनाव 2009 तक की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि लोकसभा में निर्वाचित होकर पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या वर्ष 2009 में सर्वाधिक 60 रही अर्थात् 11 प्रतिशत महिलाएं निर्वाचित हुई जो कि न्याय संगत नहीं है। इसके पीछे अनेक कारण हैं परन्तु महिलाओं के प्रति राजनीतिक दलों में न तो इच्छाशक्ति है और न ही वे पुरुष प्रधान की भूमिका को कम होने देना चाहते हैं। कई राजनीतिक दल तो इस कदर भयभीत हैं कि महिलाओं को टिकट देने से वे निर्वाचित होंगी और वे निर्वाचित होंगी तो पुरुषों का राजनीति से सफाया ही हो जाएगा।
            पिछले निर्वाचनों पर दृष्टि डालें और केन्द्रीय सरकार में मंत्रिपरिषद में स्थान बनाने वाली महिलाओं की संख्या पर ध्यान दें तो पता चलता है कि इसमें भी महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है।
वर्ष  मंत्रियों की कुल संख्या कुल  महिला मंत्रियों की संख्या  कुल  निर्वाचित महिला सांसद
            केबिनेट मंत्री   राज्य मंत्री (स्वतंत्र)  राज्य मंत्री     केबिनेट मंत्री   राज्य मंत्री (स्वतंत्र)   राज्य मंत्री    
2002    32        41        00        73        02        06        00        08        49
2004    33        45        00        78        02        06        00        08        44
2009    34        07        37        78        03        01        04        08        60

राजस्थान विधानसभा में महिला प्रतिनिधि
            राजस्थान में प्रथम विधानसभा चुनावों 1952 से लेकर वर्ष 2008 तक हुए तेरह विधानसभा चुनावों पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि प्रदेश में महिलाओं की जनसंख्या लगभग आधी है परन्तु विधानसभा में प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य रहा है।
क्र.सं. कुल सदस्य संख्या   चुनाव लड़ने वाली कुल महिलाएं निर्वाचित महिलाएं    प्रतिशत
1952    100      04        02        1.25
1957    176      21        09        5.11
1962    176      15        08        4.54
1967    184      19        07        3.80
1972    184      17        13        7.06
1977    200      31        08        4.00
1980    200      31        10        5.00
1985    200      45        17        8.50
1990    200      93        11        5.50
1993    200      97        10        5.5
1998    200      69        15        7.0
2003    200      118      12        6.0
2008    200      155      25        12.5



            भारत में महिलाओं की दशा को विविध पहलुओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास है। महिलाओं की स्थिति अलग-अलग राज्यों/जिलों/स्थानीय क्षेत्रों की पारिस्थिकीय भिन्नता के चलते एक जैसी नहीं है। अभी तक महिलाओं की दशा को कोई अच्छा नहीं कहा जा सकता परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में स्वयं के बल पर आगे बढ़ रही हैं और ये संकेत मिलना शुरू हो गया है कि चाहे सामाजिक क्षेत्र में शिक्षा हो, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा या अन्य शिक्षा हो सभी जगह महिलाओं ने अपना परचम फहराया है। चाहे संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा हो या राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं हो महिलाएं कहीं भी पीछे नहीं हैं। राजनीतिक सशक्तिकरण की बात करें तो हमें स्पष्ट संकेत मिले हैं कि स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत या 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधानों ने महिलाओं की प्रतिनिधि सहभागिता में निश्चित रूप से सकारात्मक वृद्धि हुई है। हालांकि इसमें अभी कुछ समस्याएं एवं चुनौतियां अवश्य है। आज महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर रूढ़ीवादी प्रवृत्तियों को पार कर विभिन्न व्यवसायों एवं सेवाओं में कार्यरत हैं, जिससे आर्थिक आत्मनिर्भरता भी आ रही है और केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई है। अपितु समाज एवं परिवार की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने प्रारम्भ हो गए हैं। सरकारी सेवा या राजनीति में सक्रिय महिलाओं को समाज में स्थान एवं सम्मान मिल रहा है। डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, जज, प्रशासनिक अधिकारी जैसे पदों पर महिलाएं आ रही हैं। राजनीति में तो वार्ड पंच, सरपंच, प्रधान, प्रमुख, विधानसभा सदस्य, लोक सभा सदस्य, राज्य सभा सदस्य, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जैसे पदों पर अपना दमखम दिखाने में पीछे नहीं हैं। खेलों, फिल्मों, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं, पत्रकारिता, लेखन आदि में भी महिलाओं ने अपने आपको स्थापित किया है।
            महिलाओं को समानता या बराबरी का दर्जा दिलाने की बातें करके या केवल लक्ष्य निर्धारित करने से काम नहीं चलेगा बल्कि लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का होना और इस दिशा में कार्य करना परमावश्यक है। सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं या महिला हितैषी संगठनों को कागजी घोड़े दौड़ाने मात्र से काम नहीं चलेगा अपितु योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर उतारा जाए। एक बात तो निश्चित है कि महिलाओं को सशक्त करने के लिए कोई भगवान या मसीहा अवतरित नहीं होगा और न ही समाज को नारीवाद की परिभाषा पढ़ाने से कोई बात बनेगी, नारी मुक्ति के लिए महिलाओं को आगे आना होगा, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा। सरकारें केवल महिला अधिकारों एवं कानूनों की संख्या में वृद्धि ना करें अपितु व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए ऐसे अधिकार एवं कानून बनाए जिससे वास्तविक सशक्तिकरण की अवधारणा को साकार रूप दिया जा सके। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार अथवा स्थानीय सरकार सभी को महिलाओं को महिला दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। केन्द्र सरकार महिलाओं को मातृत्व अवकाश दो बच्चों तक 2 वर्ष देती है जो कि बच्चे के जन्म से 18 वर्ष पूरी होने तक लिए जाने का प्रावधान है, वहीं राज्यों में स्थिति भिन्न है। राजस्थान में मातृत्व अवकाश अधिकतम 2 बच्चों तक प्रत्येक बच्चे पर 6 माह का प्रावधान है। इस प्रकार की भिन्नताएं महिला को महिला से भिन्न बनाती है।
            अन्त में कहा जा सकता है कि नारी को अपने अधिकारों एवं समाज में सम्मान पाने के लिए उस स्थान से उतारना होगा, जहां उसे पूजनीय कहकर बिठा दिया गया। उसे इन उतरती सीढ़ियों की दुर्गम यात्रा स्वयं करनी होगी। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है परन्तु दिशा सकारात्मक दिखाई दे रही है।


सन्दर्भ सूची

1.         पैलिनीथूराई, जी., इण्डियन जनरल आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, वो. ग्स् टप्प् नं. 1, जनवरी-मार्च 2001, पृष्ठ 39
2.         मीहेनडल, लीला, अचीवमेन्ट एवं चैलेन्ज, योजना, अगस्त 2001, पृष्ठ 56
3.         लवानिया, एम.एम., भारतीय महिलाओं का समाजशास्त्र, रिसर्च पब्लिशर्स, जयपुर, 2004
4.         कार्यस्थलों पर भेदभाव से संघर्ष: प्रगति में बाधा, श्रम (आई.एल.ओ. की पत्रिका), संख्या 43, दिसम्बर 2011, पृष्ठ 19
5.         सेतिया, सुभाष, स्त्री अस्मिता के प्रश्न, सामायिक प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 92-93