Wednesday, June 5, 2019

मां के पैरों में जन्नत होती है

मदर्स डे पर विशेष.......
मां के पैरों में जन्नत होती है 
डॉ.धर्मवीर चन्देल 
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में 'मां' का सबसे ऊचा दर्जा है, तभी तो कहा गया है कि 'भगवान हर किसी के साथ नहीं रह सकते, इसलिए उसने 'मां' को बनाया।' मां हमेशा हमारे लिए उपलब्ध रहती हंै, ईश्वर की तरह हमारी परवरिश करती है, अगर इस धरती पर कोई भगवान है तो वो हमारी मां हैं। मां के लिए शायर ताबिश अब्बास लिखते हैं-'एक मुद्दत से मेरी मां नहीं सोई ताबिश, मैंने इक बार कहा था, मुझे अंधेरे से डर लगता है।' इन अफ्लाजों से यह समझा जा सकता है कि मां का हमारी जिन्दगी में कितना महत्व हैं? शायर मुन्नवर राना की शायरी तो मुख्य रूप से मां पर ही के्द्रिरत हैं, उनका शेर-'किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकान आई, मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई।' कहा जाता है कि बच्चा जब जन्म लेता है तो सबसे पहले वह 'मां' शब्द ही बोलता है। मां ही एक ऐसा शब्द है, जिसका उच्चारण दिल की गहराइयों से निकलता है। भारतीय संस्कृति में मां का मुकाम सबसे ऊपर है, मां को दुनिया का सबसे बड़ा सर्जक कहा गया है, जो अपने शरीर से दूसरे शरीर को जन्म देती है, तभी तो कहा गया है कि मां के पैरों में जन्नत होती है। मां को स्मरण करते हुए भाजपा प्रदेशाध्यक्ष मदनलाल सैनी कहते हैं कि मां एक कुशल डॉक्टर, सफल अर्थशास्त्री, बेहतरीन कुक और उच्च दर्जे की किसान विज्ञानिक हैं। जबकि राज्य सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव (वित्त) निरंजन आर्य तो मां को याद करके करीब पांच मिनट के लिए शून्य में ताकते हुए मौन हो जाते हैं। फिर कहते हैं कि मां के लिए क्या कहूं, उनका तो जीवन की हर धड़कन से रिश्ता रहा है। भाजपा की वरिष्ठ नेता एवं विधायक अनिता भदेल कहतीं हैं कि मातृ दिवस एक दिन ही क्यों मनाया जाए?  हर दिन या कहूं कि हर पल क्यों नहीं मनाया जाए। मैं तो मां को ईश्वर से ऊचा स्थान मानती हूं। बहरहाल, किसी शायर ने कहा है-'खुदा का दूसरा रूप है मां, ममता की गहरी झील है मां, वो घर किसी जन्नत से कम नहीं, जिस घर में खुदा की तरह पूजी जाती है मां।'  मातृ दिवस पर समाज के कुछ विशिष्टजनों से बातचीत की गई, प्रस्तुत हैं बातचीत के सम्पादित अंश-
मां कहती थी, किसी का ओलमा नहीं आना चाहिए: सैनी
भाजपा प्रदेशाध्यक्ष एवं सांसद मदनलाल सैनी अपनी 96 वर्षीय मां को याद करते हुए कहते हैं कि मां तो मां होती हैं, उससे बड़ा दुनिया में कोई नहीं। मां बचपन से कहती थी कि किसी का बाहर से ओलमा नहीं आना चाहिए, उनकी यह बात जीवन का बीज मंत्र बन गई। आज मां स्वस्थ रूप से जीवन के 96 बसंत गुजार रही हैं, वे सीकर में रहती हैं, मेरी व्यस्ता के चलते सीकर इन दिनों ज्यादा जाना नहीं हो पाता है। लेकिन जब भी मां से मिलना होता है तो मां बड़े प्यार से कहती है कि 'आज तो बड़ो भायो आयो है।' सैनी बताते हैं कि मां निरक्षर हैं, लेकिन वह एक कुशल डॉक्टर, सफल अर्थशास्त्री, बेहतरीन कुक और उच्च दर्जे की किसान वैज्ञानिक हैं। बचपन में थोड़ा सा बुखार होने पर घर की औषधि, घर चलाने के लिए सफल अर्थशास्त्री और खेती-किसानी में उच्च दर्जे की किसान वैज्ञानिक हैं। उनका एक सबक आज भी स्मरण हैं कि 'पढ़ते रहोगे तब तक पढ़ाते रहेंगे, जिस दिन फेल हो गए, उसी दिन से खेती करनी होगी।'
पिताजी ने ही दिया, मां और बाप का प्यार: महेश जोशी
विधानसभा में सरकारी उप मुख्य सचेतक डॉ.महेश जोशी कहते हैं कि मेरे लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि मेरी मां पौने दो साल में ही मुझे छोड़कर भगवान के पास चली गई। ऐसे में मेरी पिताजी ने हम सभी पांचों भाई-बहिनों को मां और बाप का प्यार देकर बड़ा दिया। हालांकि, मां के निधन के बाद मेरी मेरी चाचीजी ने कुछ वर्षों तक मेरा लालन-पालन किया, लेकिन मेरी हर ख्वाहिश की पूति मेरे पिताजी और मेरी बड़ी बहिनों ने की। पिताजी ने जीवन के कई सबक सिखाए। आज भी याद है कि जब पिताजी के साथ खाना खाते थे तो घी लगी हुई बीच की अधिक रोटी हमें खिलाई जाती थी और चारों ओर कम घी लगी हुई रोटी पिताजी खाते थे। कभी-कभी मैं भी मां को याद कर रूहासा हो जाता था, लेकिन उसी समय मेरे पिताजी मुझे समझाते हुए कहते थे, बेटा आपकी मां अच्छी थी, जिन्हंे भगवान ने अपने पास बुला लिया।
मां हमेशा हमारे फेवर में होती थी-नीलकमल दरबारी
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव नीलकमल दरबारी अपनी मां को याद करती हुई कहतीं हैं कि मां को गए हुए करीब दो दशक हो गए, लेकिन उनकी नसीहत आज भी हमें जीवन के हर कदम पर याद आती हैं। उन्होंने ही समझाया कि जीवन में क्या अच्छा है और क्या बुरा है? जीवन में मूल्यों का बड़ा महत्व है और सत्य को जीवन में आत्मसात करना ही मनुष्य का ध्येय है, यह सबक भी मां की ही देन हैं। मां अपने समय के आगे थी, उस दौर में परिवार में हम भाई-बहिनों में वे हम बहिनों का ही पक्ष लेती थीं। आज मैं जो कुछ हूं, वह मेरी मां की ही देन हैं। आज भी जब मैं उन्हें स्मरण करती हूं तो आंखों की दोनों कोर गीली हो जाती हैं।  

अपने ही गढ़ में विराने हो गए नेता

अपने ही गढ़ में विराने हो गए नेता
डॉ.धर्मवीर चन्देल
भारतीय राजनीति में वंशवाद तेजी से परवान चढ़ा है। कहा जाता है कि पं.नेहरू जब देश के प्रधानमंत्री थे, तब उनके जीवनकाल में ही 1959 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया था, उसके बाद अन्य नेताओं ने भी देखा-देखी अपने बाल-गोपालों को सियासत के गलियारों में भेजना शुरू कर दिया। वंशवादी राजनीति ने सियासत के गलियारों में ऐसा रंग जमाया कि हर कोई वंशवादी राजनीति के रंग में रंगा नजर आया। वक्त के साथ वंशवादी राजनीति का रंग अधिक गहरा होता चला गया। इससे परिवार की राजनीति तो फल-फूलती रही, लेकिन इस पद्धति से उन लोगों को निराशा हाथ लगती, जो सियासत के माध्यम से समाज को बदलने का सपना देखा करते थे। नए लोगों को वंशवादी सियासत के चलते मौका ही नहीं मिल पाता था। वंशवादी राजनीति की खास बात यह रही कि कोई भी दल अब इससे अछूता नहीं रहा। 17 वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम ने एकबारगी कुछ संख्या में वंशवादी राजनीति के किले ढहाने का कार्य किया हैं। एकबारगी सरसरी निगाहों से देखे तो कांग्रेस परिवार के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी हो या  चौधरी चरणसिंह के कुनबे के अजित सिंह या फिर हरियाणा के चौधरी देवीलाल या भजनलाल का परिवार ही क्यों न हो,सभी ने इस चुनाव में शिकस्त का स्वाद चखा है। राजस्थान के मतदाताओं ने भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत, नागौर के नाथूराम मिर्धा की पौत्री ज्योति मिर्धा, मेजर जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह को मतदाताओं ने नकार दिया। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अपने ही गढ़ में विराने हो गए नेता।
राहुल गांधी-
अमेठी की जनता ने राहुल गांधी को इस बार करीब 55 हजार मतों से चुनाव हरा दिया। अमेठी गांधी परिवार की परम्परागत सीट रही है, जहां से पहले संजय गांधी और उनके निधन के बाद राजीव गांधी ने भाग्य आजमाया और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वे अमेठी से ही सांसद बनकर देश के प्रधानमंत्री बने थे। हालांकि, आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में अमेठी की जनता ने संजय गांधी को भी खारिज कर दिया था। हालांकि, राहुल गांधी को पूर्व में ही अमेठी की जनता के मिजाज का अहसास हो गया था, इस कारण उन्होंने अमेठी के साथ ही केरल के वायनाड से चुनाव लड़ा और अच्छे मतों से जीतकर लोकसभा पहुंचे, जबकि अमेठी में उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
अजीत सिंह-
भारतीय राजनीति में किसान राजनीति के जन्मदाता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह के पुत्र चौधरी अजीत सिंंह और पौत्र जयन्त सिंह भी चुनाव में अपनी परम्परागत सीट नहीं बचा पाए। एक दौर ऐसा था, जब पश्चिमी उत्तरप्रदेश में चौधरी चरण सिंह का डंका बजता था, उनके नाम पर कई बार उनके पुत्र अजीत सिंह चुनाव जीतते रहे, लेकिन इस बार उन्हें चुनाव में मुंह की खानी पड़ी। चौधरी अजीत सिंह मुज्जफरनगर और जयंत सिंह बागपत से चुनाव में खेत रहे। राष्ट्रीय लोकदल का एक भी सांसद लोकसभा नहीं पहुंचा।
मीरा कुमार-
देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम की पुत्री एवं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को भी सासाराम की जनता ने लोकसभा में नहीं भेजा। सासाराम सीट से जगजीवन चुनाव जीतकर रक्षा, कृषि और देश के उपप्रधानमंत्री बने थे, लेकिन इस बार चुनाव में सासाराम की जनता ने उनके नाम का बटन नहीं दबाया। हालांकि, मीरा कुमार ने उनके पिता के निधन पर कई चुनाव सासाराम से जीते हैं, लेकिन बदलते वक्त ने कुमार को निराश ही किया है।
चौधरी देवीलाल-
हरियाणा की राजनीति कई दशकों तक तीन 'लालों' के पीछे घुमती रही है। इसमें देवीलाल, भजनलाल और बंशीलाल शामिल हैं। इस बार के चुनाव में हरियाणा की जनता ने देश के उपप्रधानमंत्री रहे चौधरी देवीलाल के परिवार के अर्जुन चौटाला, दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला को बड़े अंतर से चुनाव हरवा दिया। देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चौटाला कई बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे हैं। इसी तरह कांग्रेस की राजनीति के जोड़तोड़ में माहिर माने जाने वाले भजनलाल के पौत्र भव्य विश्नोई भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। हरियाणा के इतिहास में यह घटना एक बड़ी परिघटना के समान हैं।
एचडी देवगौड़ा-
कर्नाटक की राजनीति के बेताज बादशाह रहे और वर्ष 1996 में देश के प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा अपनी परम्परागत सीट तुमकुर से चुनाव हार गए। उनके पौत्र निखिल कुमारस्वामी को भी चुनाव में मात खानी पड़ी। यहां तथ्य है कि एचडी देवगौड़ा के एक पुत्र कुमारस्वामी अभी कर्नाटक के मुख्यमंत्री और उनके दूसरे पुत्र राज्य में केबिनेट मंत्री के रूप में काम रहे हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया-
ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अपनी परम्परागत सीट गुना से करीब एक लाख, 25 हजार वोटों से कृष्णपाल सिंह यादव से मात खा गए। जबकि इस सीट से उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया, उनके पिता माधवराव सिंधिया ने भी कई बार लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया है। वर्ष 2002 में माधवराव सिंधिया के आकस्मिक निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजनीति में भाग्य आजमाया और वे हर बार चुनाव जीतते रहे, लेकिन इस चुनाव में जनता ने उन पर विश्वास नहीं किया। कुछ साल पहले तक भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतने वाले कृष्णपाल सिंह, सिंधिया के सहयोगी हुआ करते थे, लेकिन इस चुनाव में उन्होंने सिंधिया को अपने ही गढ़ में मात दे दी।
मुलायम सिंह यादव का परिवार-
उत्तरप्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार मुलायम सिंह यादव के कुनबे को भी इस चुनाव में कड़ी शिकस्त का सामना करना पड़ा। मुलायम की पुत्र वधू डिम्पल यादव कन्नोज से करीब 12 हजार मतों से सुब्रत पाठक हार गई। जबकि वर्ष 2014 में डिम्पल अपनी सीट को बचाने में कामयाब हो गई थी। यहां तथ्य है कि कन्नोज से समाजवादी पार्टी के विचारक डॉ.राममनोहर लोहिया भी सांसद रहे हैं, लेकिन बदले हुए वक्त में कन्नोज की जनता ने डिम्पल को चुनाव में खारिज कर दिया। कन्नोज को समाजवादियों की परम्परागत सीट मानी जाती है। मुलायम सिंह यादव के भाई प्रो.रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव और अभयराम यादव के पुत्र धर्मेन्द यादव भी चुनाव में मात खा गए। जबकि वर्ष 2014 में मोदी लहर में डिम्पल, अक्षय और धर्मेन्द अपनी सीटों को बचाने में कामयाब हो गए थे, लेकिन इस चुनाव में उनके परिवार का गढ़ पूरी तरह बच नहीं पाया। हालांकि, मुलायम सिंह यादव मैनपुरी से जीतने में कामयाब हो गए, लेकिन उनकी जीत का अंतर पिछले सालों की तुलना में कम हो गया। हालांकि, मायावती ने उनके लिए प्रचार भी किया था।
लालूप्रसाद यादव-
लालूप्रसाद यादव की पुत्री मीसा भारती को इस बार भी पाटलीपुत्र की जनता ने नापसन्द किया। भाजपा के रामकृपाल यादव चुनाव में मोर्चा मार ले गए। उन्होंने मीसा भारती को करीब चालीस हजार मतों से चुनाव में मात दी है। गौरतलब है कि रामकृपाल यादव कुछ साल पहले तक लालू यादव के बहुत विश्वापात्र हुआ करते थे, लेकिन पाटलीपुत्र से अपनी पुत्री को चुनाव लड़ाने से नाराज यादव ने पाला बदलकर भाजपाई हो गए और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ लिया।
वैभव गहलोत-
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के पुत्र एवं कांग्रेस के प्रदेश महासचिव वैभव गहलोत को जोधपुर से भाजपा के गजेन्द्र सिंह शेखावत से करारी हार का सामना करना पड़ा। यहां तथ्य है कि गहलोत ने लोकसभा में जोधपुर का पांच बार प्रतिनिधित्व किया है।
ज्योति मिर्धा-
कांग्रेस के दिग्गज जाट नेता नाथूराम मिर्धा की पौत्री एवं पूर्व सांसद ज्योति मिर्धा को नागौर की जनता ने इस बार भी चुनाव में जीताकर नहीं भेजा। जबकि नाथूराम मिर्धा राजस्थान की राजनीति के ऐसे सितारे थे, जिन्होंने आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में नागौर से जीत दर्ज की थी, उस समय उत्तरभारत से कांग्रेस का सफाया हो गया था। साथ ही, नाथू राम बाबा ने अपने जीवन का अन्तिम लोकसभा चुनाव भी दिल्ली के एक अस्पताल से लड़ा था, उस समय मिर्धा अस्पताल में मृत्यु शैया पर थे, लेकिन नागौर की जनता ने उन्हें चुनाव जीताकर लोकसभा भेजा था।
मानवेन्द्र सिंह-
कभी भाजपा के दिग्गज रहे मेजर जसंवत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह बाडमेर से कांग्रेस के कैलाश चौधरी से चुनाव हार कर अपने परम्परागत गढ़ को बचा नहीं पाए।