Sunday, September 9, 2012

भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार

पुस्तक समीक्षा
भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार
सम्पादक: डॉ. धर्मवीर चन्देल, नत्थीलाल चतुर्वेदी
समीक्षाकर्ता: प्रो.शशि सहाय
 भारत में पंचायतीराज की विपुल धरोहर रही है। यदि यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत की धरती पंचायतीराज के लिए काफी उर्वरा साबित हुई, जहाँ पर फैसलें सर्वानुमूति व पंच परमेश्वर पद्धति के आधार पर लिए जाते थे। पंचायतीराज के विभिन्न आयामों पर हाल ही में डॉ. धर्मवीर चन्देल, नत्थीलाल चतुर्वेदी की ‘भारत में पंचायतीराज सिद्धान्त व व्यवहार’ शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित हुई है। जिसमें पंचायतीराज के ऐतिहातिक परिप्रेक्ष्य से लेकर वर्तमान समय तक के लेखा-जोखों का समावेश किया गया है। पुस्तक के सत्रह लेख पंचायतीराज के विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालते हुए इसे ‘पुष्प गुच्छ’ का रूप देते दिखाई देते है।    
 प्रथम लेख देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने ‘प्राचीन भारत में ग्राम स्वशासन: पंचायत व्यवस्था’ में प्राचीन भारत की समाज व्यवस्था एवं पाश्चात्य और भारतीय विज्ञानियों के मतों, प्राचीन समय में निर्वाचन एवं समय-समय पर हुए बदलाव, जन्मजात एवं सत्ता की निरंकुशलता पर रोक लगाने सहित वर्तमान समय में हुए बदलाव का विवेचन किया है।
 रामवल्लभ सोमानी ने प्राचीन राजस्थान में पंचायत व्यवस्था में ‘पंचकुल’ एवं ‘महाजन सभा’ नामक दो प्रमुख संस्थाओं एवं इनके अधीन कार्य कर रही प्रमुख संस्थाओं का उल्लेख कर पंचायतीराज को इतिहास के कालखण्ड से जोडने का कार्य किया है।
 पुस्तक के सम्पादक डॉ. धर्मवीर चन्देल ने ‘भारत में पंचायतीराज का उद्भव एवं विकास’ में पंचायतीराज के प्राचीनकाल, मध्यकाल, ब्रिटिशकाल एवं स्वतंत्रता के पश्चात् आए बदलाव, समय-समय पर विभिन्न आयोगों द्वारा किए गए सुझावों, 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में महिलाओं एवं पिछड़े वर्गों की आरक्षण व्यवस्था अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतीराज: 1996 का विस्तार अधिनियम एवं पंचायतीराज की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर 2 अक्टूबर 2009 ग्राम न्यायालय की स्थापना एवं महानरेगा पर प्रकाश डाला है। साथ ही, लेखक ने पंचायतीराज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य को शब्दों में बांधने का सुफल प्रयास किया है।
 प्रो. अशोक शर्मा ने ‘पंचायतीराज में सुशासन: न्यूनताओं का परिष्कार आवश्यक में’ पंचायतीराज व्यवस्था में सुशासन की अवधारणा एवं महत्व को बताते हुए सुशासन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को प्रस्तुत किया है। 73वें संवैधानिक संशोधन से आए क्रांतिकारी बदलाव का वर्णन करते हुए इन संस्थाओं को अधिक सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु आवश्यक सुझाव प्रस्तुत किए हैं। इन सुझावों पर चलकर पंचायतीराज की बहुत सी खामियां दूर हो सकती हैं।
 डॉ. सुनील महावर ने भारत में पंचायतीराज व्यवस्था और सुशासन में पाश्चात्य और भारतीय राजनीतिक चिन्तकों के प्राचीन समय से चले आ रहे सुशासन के विचारों को प्रस्तुत करते हुए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुशासन के आवश्यक घटकों का वर्णन किया है।
 संजय असवाल ने ‘गांधी का ग्राम स्वराज्य और भारत में पंचायतीराज’ में महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए महात्मा गांधी के सर्वोदय एवं अन्त्योदय की विवेचना की है।
 ‘महात्मा गांधी नरेगा में पंचायतीराज की भूमिका’ नामक लेख में डॉ. जनक सिंह मीणा एवं डॉ. धर्मवीर चन्देल ने ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज की ऐतिहासिक यात्रा, कार्यक्रम एवं योजनाओं का उल्लेख करते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अर्थात् वर्तमान स्वरूप तक की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्थिति को कसौटी पर कसने का प्रयास किया है। साथ ही, पंचायतीराज में नरेगा किस स्तर पर सफल हुआ है, इसकी भी गम्भीरता से पड़ताल की गई है।
 डॉ. योगेन्द्र राजोरिया एवं डॉ. मनहर चारण ने ‘महात्मा गांधी का पंचायतीराज मॉडल एक नजर में’ महात्मा गांधी के पंचायतीराज को वर्तमान समय में चल रहे पंचायतीराज से तुलना की गई है।
 लोकेश कुमार चन्देल ने ‘राजस्थान में पंचायतीराज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में’ स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद के पंचायतीराज के स्वरूप का वर्णन करते हुए विभिन्न समितियों द्वारा सुझाए पंचायतीराज की सिफारिशों एवं पंचायतीराज की त्रिस्तरीय व्यवस्था का उल्लेख किया है।
 डॉ. जनक सिंह मीणा ने राजस्थान में ‘पंचायतीराज संस्थाओं में निर्वाचन व्यवस्था: दशा एवं दिशा में’ पंचायतीराज के निर्वाचनों का विश्लेषण किया गया है। डॉ. मीणा ने अन्त में पंचायतीराज संस्थाओं की वर्तमान स्थिति, दशा को इंगित करते हुए इसकी दिशा को दृष्टिपटल पर उकेरने का प्रयास किया है।
 डॉ. पूरणमल ने पंचायतीराज एवं महिला सशक्तिकरण में महिलाओं की राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका को बताते हुए सरकार द्वारा महिलाओं के विकास के लिए उठाए गए प्रयासों को बताया है।
 ‘73वां संविधान संशोधन व पंचायतीराज व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका’ में पदमसिंह चौधरी एवं डॉ. शैलेन्द्र मौर्य ने देश की कार्यकारी स्थिति एवं भ्रष्टाचार को बताते हुए 73वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा महिलाओं को दिए एक तिहाई आरक्षण, 73वें संवैधानिक संशोधन की विशेषताओं का वर्णन महिलाओं को सशक्त, आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनाने के प्रयासों के प्रमुख सुझाव प्रस्तुत किए हैं।
 डॉ. मुकेश शर्मा ने ‘महिला एवं कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण में’ प्राचीनकाल में पंचायतीराज को बताते हुए वैदिक युग, मौर्यकाल, गुप्तकाल, मुगलकाल व ब्रिटिश शासन काल में पंचायतीराज व्यवस्था को प्रस्तुत किया है।
 प्रो. रामशरण जोशी ने ‘खाप पंचायतें पंचायती राज नहीं: एक विश्लेषण में’ भारतीय संस्कृति में पंच परमेश्वर की अवधारणा को बताते हुए बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर इशारा करते हुए कहा है कि आज खाप पंचायतें अर्थात् जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र विशेष की असंवैधानिक पंचायतें होती हैं, जिनमें अतार्किक एवं रूढ़िवादी विचारधारा से ओतप्रोत निर्णय लिए जाते हैं, जो कानूनी रूप में अवैध होते हैं। खाप पंचायतों के निर्णयों को पंचायतीराज नहीं मानना चाहिए क्योंकि पंचायतीराज में तार्किकता, वैधता, संवैधानिकता निहित होती है, जिसमें कानूनों की पालना की जाती है। उन्होंने हरियाणा एवं उत्तरप्रदेश का उदाहरण देते हुए खाप पंचायतों के निर्णयों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है।
 रामपाल जाट ने ‘पंचायतीराज में राजनीतिक दलों की भूमिका में’ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों की सुदृढ़ स्थिति का महत्व बताते हुए, लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में राजनीतिक दलों को वाहक के समान प्रस्तुत किया है। उनकी आवश्यकता को प्रकट करते हुए महिला जनप्रतिनिधियों की स्थिति का विवेचन किया है।
 रघुनाथ गुप्ता ने ‘बिहार में पंचायतीराज: तब से अब तक में’ बिहार में लिच्छवी गणतंत्र को प्रथम लोकतांत्रिक व्यवस्था बताया है। अपने आलेख में बिहार के पंचायतीराज व्यवस्था को विस्तार से समझाने का प्रयास किया है।

 डॉ. धर्मवीर चन्देल एवं नत्थीलाल चतुर्वेदी ने ‘पंचायतीराज आधी सदी का सफर: एक सिंहावलोकन’ के अन्तर्गत 2 अक्टूबर, 1959 पंचायतीराज की नींव रखने से लेकर सन् 2009 में स्वर्ण जयन्ती मनाए जाने तक की विकास यात्रा का उल्लेख किया है। इसमें यह भी बताया गया है कि इस सफर में पंचायतीराज व्यवस्था कितनी सफल व कितनी असफल रही। आरक्षित वर्गों व महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद उनकी स्थिति में कितना व किस तरह का बदलाव सामने आया है।
 डॉ. धर्मवीर चन्देल एवं नत्थीलाल चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘भारत में पंचायतीराज: सिद्धान्त एवं व्यवहार’ वर्तमान तक से संशोधनों से परिपूर्ण है। कुल मिलकार यह कहा जा सकता है कि पुस्तक में पंचायतीराज के सफरनामे में व्यापक संशोधन व सुझाव के बाद भी कई तरह की विसंगतियाँ और जाति व धन का बोलबाल बढ़ता जा रहा है। पंचायतीराज के फैसले कुछ वर्ग विशेष के लोगों के लिए लाभकारी न होकर उन लोगों के लिए भी हो जो समाज के हाशिए पर खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।