Wednesday, May 2, 2012

भारत में महिला सशक्तिकरण: दशा और दिशा

भारत में महिला सशक्तिकरण: दशा और दिशा


डाॅ. धर्मवीर चन्देल’’

‘‘यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’’
            अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। यहां नारी को देवी के रूप में देखा गया है। भारत में स्त्रियों की दशा सदैव एक जैसी नहीं रही अपितु समय एवं काल के साथ परिवर्तन आते गए। किसी युग में नारी को सम्मान दिया गया तो कहीं उसका अपमान, उत्पीड़न, अत्याचार एवं जुल्म ढ़ाने की सभी हदें पार कर दी गईं। महिलाएं समाज में अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का शिकार होती रही हैं, जिनमें हैं - कन्यावध, भ्रूण हत्या, सती प्रथा, जौहर, डाकण प्रथा, क्रय-विक्रय, वैश्यावृत्ति, दास प्रथा, बाल विवाह इत्यादि। आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सपेरा नृत्य की पहचान बनाने वाली कालबेलिया समाज की गुलाबो, जिसे कि समाज की नवजात लड़कियों को जिन्दा दफनाने को कन्या धर्म मानने की कुप्रथा का शिकार होना पड़ा, को जन्म के एक घण्टे बाद ही जमीन में दफना दिया था परन्तु उसकी मौसी ने गुलाबो को जमीन से निकाल कर पाला और उसी गुलाबों ने आज दुनिया में अपनी प्रतिभा के बल पर महिलाओं व समाज का मान बढ़ाकर नेतृत्व प्रदान किया है।
            भारत में आज भी सामाजिक ताना-बाना ऐसा है जिसमें अधिकांश महिलाएं पिता या पति पर ही आर्थिक रूप से निर्भर करती हैं तथा निर्णय लेने के लिए भी परिवार में पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। महिलाओं को न तो घर के मामलों की निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाता है और न ही बाहर के मामलों में। विवाह से पूर्व वे पिता व विवाह के बाद पति के अधीन रहते हुए जीवनयापन करती हैं। हालांकि देश के संविधान में महिलाओं को सदियों पुरानी दासता एवं गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाने के प्रावधान किए गए हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 19, 21, 23, 24, 37, 39(बी), 44 तथा अनुच्छेद 325 स्त्री को भी पुरुषों के समान अधिकारों की पुष्टि करते हैं।
महिला सशक्तिकरण
            सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि सशक्तिकरण क्या है? सशक्तिकरण का तात्पर्य है शक्तिशाली बनाना। सशक्तिकरण को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक असमानताओं से पैदा हुई समस्याओं एवं रिक्तताओं से निपटने के रूप में देखा जा सकता है। इसमें जागरूकता, अधिकार एवं हकों को जानने, सहभागिता, निर्णयन जैसे घटकों को लिया जाता है। अब हम महिला सशक्तिकरण को पैलिनीथूराई के शब्दों में देखते हैं - महिला सशक्तिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज के विकास की प्रक्रिया में राजनीतिक संस्थाओं के द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर मान्यता दी जाती है।1
            लीला मीहेनडल के अनुसार महिला सशक्तिकरण - निडरता, सम्मान और जागरूकता तीनों शब्द महिला सशक्तिकरण में सहायक हैं। यदि डर से आजादी महिला सशक्तिकरण का पहला कदम है, तो तेजी से न्याय से उसकी आवश्यकता पूरी हो सकेगी। यदि महिलाओं को वास्तव में न्याय दिलाना है तो उनकी जांच-परख प्रणाली को और अधिक कार्यकुशल बनाना होगा तथा अराजकता फैलाने वाले तत्वों को सजा देनी होगी।2
            महिलाओं के लिए डाॅ. बी.आर. अम्बेडकर का कथन है कि भारतीय नारी श्रम से नहीं घबराती किन्तु आंसुओं की चिन्ता करते हुए वह रोटी, असमान व्यवहार, शोषण से अवश्य डरती है। इसमें बाबा साहेब ने महिलाओं की वास्तविक वेदना को मुखरित किया है। महिला सशक्तिकरण की अवधारणा बहुआयामी है। यह कोई पुरुष निरपेक्ष नहीं बल्कि सापेक्ष विमर्श है और इसके लिए पुरुषों को भी आगे आना होगा। महिलाओं के सामाजिक सशक्तिकरण में शिक्षा की अहम भूमिका है। यह महिलाओं के सर्वांगीण विकास के लिए प्रथम एवं मूलभूत साधन है क्योंकि महिला के शिक्षित होने पर जागरूकता, चेतना आएगी, अधिकारों की सजगता होगी, रूढ़ियां, कुरीतियां, कुप्रथाओं का अन्धेरा छंटेगा और वैचारिक क्रान्ति से प्रकाश पुंज फूट निकलेगा। शिक्षा के माध्यम से महिलाएं समाज में सशक्त, समान एवं महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज करा सकती हैं। शिक्षित महिलाएं न केवल स्वयं आत्मनिर्भर एवं लाभान्वित होती हैं अपितु भावी पीढ़ियां भी लाभान्वित होती है। शिक्षा एक ऐसी सम्पत्ति है जिसे न छीना जा सकता है और न ही बांटा जा सकता है। दूसरी ओर ऐसा हथियार भी है जिसके बल पर कोई भी युद्ध लड़ा जा सकता है, अब चाहे वह शोषण, असमानता, अन्याय, अनाचार के विरूद्ध ही क्यों ना हो।
            महिलाओं की स्थिति में सुधार के समय-समय पर अनेक प्रयास किसी न किसी रूप में होते रहे हैं। भक्तिकाल में नारियों को पुरुषों के समान भक्ति के योग्य माना, जिसके फलस्वरूप अनेक महिला सन्तों ने विशेष स्थान बनाया जिनमें प्रमुख हैं - मीराबाई, मुक्ताबाई, केसमाबाई, गंगूबाई व जानी। अकबर ने बाल विवाह, बेमेल विवाह, सती प्रथा को रोकने की दिशा में कार्य किया। राजा जयमल की विधवा को अकबर ने सती होने से रोका था तथा पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क ने अपनी आलमदारी में इस प्रथा के विरूद्ध आदेश प्रसारित करवाए। महिलाओं की दशा को सुधारने में अनेक समाज सुधारकों ने महती भूमिका निभाई। जिनमें प्रमुख थे - राजाराममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, वीर सांलिगम, दयानन्द सरस्वती, महादेव गोविन्द रानाडे, बाल गंगाधर तिलक, ज्योतिबा फूले, केशवकवे, बहरामजी मालाबरी, गोपाल कृष्ण आगरकर, हरिदेशमुख इत्यादि। महिला समाज सुधारकों में पण्डित रमाबाई, रमाबाई रानाडे, स्वर्ण कुमारी देवी, रानी स्वर्णमयी, सावित्री बाई फूले, आनन्दीबाई जोशी ने अपना योगदान दिया।
            भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिन महिलाओं ने अपने प्राणों की आहूति देकर इस देश की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें हैं - राजकुमारी अमृतकौर, गन्नोदेवी, मीरा बेन, सुचेता कृपलानी, कमला देवी, मार्गर कासिम, सुहासिनी गांगुली, बेरी बेन गुप्ता, कमला देवी चटोपाध्याय, सरोजदास नाग, सुशीला, जमुनाबाई, दुर्गाबाई देशमुख, कस्तूरबा गांधी, बेगम हजरत महल, शान्ति घोष, सरोजनी नायडू, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, लक्ष्मीबाई, अरूणा आसफ अली, मैडम भीकाजी कामा, रानी चैन्नईया, दुर्गा देवी वोहरा, प्रीतिदत्त पोद्दार, मीमाबाई, इन्दूमति सिंह, रानी अवन्तिबाई, रानी ईश्वरी कुमारी, मीरा पन्ना, रेशू मेन, कुमारी मैना, लाडो रानी, कल्याणी दास, शोभारानी आदि।
महिलाओं की स्थिति
            शिक्षा सम्पूर्ण अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करके विकास और उन्नति के मार्ग खोलती है। भारत में महिला एवं पुरुष की शिक्षा में विभेदीकरण पाया जाता है। लड़की को पराया धन की संज्ञा देकर उसके सभी अधिकारों का हनन हो जाता है क्योंकि संकीर्ण विचारधारा एवं सीमित ज्ञान के कारण स्वयं महिलाएं भी ऐसा दृष्टिकोण रखती हैं और लड़कियों के साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है। खाना, पहनावा, प्यार एवं स्नेह, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय आदि में खुला भेदभाव आज भी देखा जा सकता है। वैश्विक परिदृश्य पर एक नजर डाले तो यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार महिला साक्षरता की स्थिति विश्व के कुछ देशों में इस प्रकार है -
क्र.सं. देश  साक्षरता (प्रतिशत)
1          ब्राजील    97.9
2          रूस  99.8
3          नाईजीरिया 86.5
4          चीन 98.5
5          भारत (2011)           65.46

भारत में साक्षरता (महिला)
क्र.सं. वर्ष  साक्षरता (प्रतिशत)
1          1951    8.9
2          1961    15.4
3          1971    22.0
4          1981    29.8
5          1991    39.3
6          2001    53.7
7          2011    65.46


भारत में साक्षरता की स्थिति
            वहीं वैश्विक लिंगानुपात पर दृष्टि डाली जाये तो कुछ देशों की स्थिति निम्नानुसार है -
क्र.सं. देश  लिंगानुपात
1          भारत 940
2          नेपाल    1041
3          ब्राजील    1025
4          जापान    1041
5          वियतनाम 1020
6          चीन 944
7          अमेरिका  1029
8          नाईजीरिया 1016
9          इजराइल  1000
10        रूस  1140
11        फ्रांस 1041
12        वैश्विक औसत लिंगानुपात  990





विभिन्न देशों में लिंगानुपात
            भारत में लिंगानुपात की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि उक्त विभिन्न देशों के लिंगानुपात पर दृष्टि डाले और विचार करें तो कुछ प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसे क्या कारण हैं कि रूस में 1000 पुरुषों पर 1140 स्त्रियां है अथवा नेपाल, जापान एवं फ्रांस में लिंगानुपात 1041 क्यों है? अमेरिका में 1029, ब्राजील में 1025, वियतनाम में 1020, नाइजीरिया में 1016, इजराइल में 1000 लिंगानुपात क्यों है? चीन में 944 और भारत में 940 है जबकि वैश्विक औसत लिंगानुपात 990 है। हमें उन सभी कारणों, घटकों एवं नियोजन पर गहन चिन्तन करना होगा जिनसे उक्त प्रश्नों का उत्तर खोजा जा सके और भारत में लिंगानुपात की दयनीय स्थिति को बेहतर बनाया जा सके। हमारे देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति में भी बहुत अधिक अन्तर है जैसे केरल में सर्वाधिक जबकि हरियाणा में न्यूनतम लिंगानुपात है।
            महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो खूब बना दिये हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की वर्तमान रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व गृहणियां भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग 1.5 लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं जबकि इसके कई गुण दबकर ही रह जाते हैं। विवाहित महिलाओं के विरूद्ध की जाने वाली हिंसा के मामले में बिहार सबसे आगे है, जहां 59 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई, उनमें 63 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों की थी। दूसरे नम्बर पर राजस्थान 46.3 प्रतिशत एवं तीसरे स्थान पर मध्यप्रदेश 45.8 प्रतिशत है।




भारत में लिंगानुपात
            भारतीय परिप्रेक्ष्य में लिंगानुपात को देखा जाए तो सदैव 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या उससे कम ही रही है। वर्ष 1951 से लिंगानुपात पर दृष्टि डालें तो इसमें ऊतार-चढ़ाव आते रहे हैं, परन्तु कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए जिसे निम्न तालिका में देखा जा सकता  है -
क्र.सं. वर्ष  लिंगानुपात
1          1951    946
2          1961    941
3          1971    930
4          1981    934
5          1991    927
6          2001    933
7          2011    940



            महिला शिक्षा के बाद दूसरा प्रमुख घटक है स्वास्थ्य। स्वस्थ महिला स्वस्थ बच्चे को जन्म देती है। महिलाएं अनेक बीमारियों से ग्रसित होती हैं, वहीं वे कुपोषण, अल्प रक्तता, हीमोग्लोबिन की कमी आदि का शिकार होती हैं। भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्री-पुरुष की समानता की दुहाई देने वाले हमारे समाज में बीमार होने पर महिलाओं को गम्भीर स्थिति में ही अस्पताल ले जाया जाता है। आज भी देश में प्रसवपूर्व सेवाएं शोचनीय दशा में हैं। केवल 53.8 प्रतिशत को टिटनेस टाक्साइड के टीके मिल पाते हैं, 40 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं का रक्त चाप लिया जाता है। अभी भी 2/3 प्रसव घर पर ही हो रहे हैं। केवल 43 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं को प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की सेवाएं प्राप्त हैं। शिशु जन्म के उपरान्त भी महिलाओं को बहुत कम और कन्या शिशु के मामले में कोई देखभाल उपलब्ध नहीं होती।3
            महिलाओं में आज भी अन्धविश्वास एवं रूढ़िवादी प्रवृत्ति कूट-कूट कर भरी है। निरक्षर अथवा कम पढ़ी लिखी महिलाओं की तो दूर की बात उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं भी पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए सैकड़ों तंत्र-मंत्र एवं उपाय करती हैं। झाड़-फूंक, भूत-प्रेत, तांत्रिक बाबाओं के भंवर जाल में फंस कर नरबलि चढ़ाने को भी तैयार हो जाती हैं। ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए विज्ञान का सहारा लेना होगा और तर्काधारित जागरूकता के माध्यम से ही अन्धविश्वास को दूर किया जा सकता है।
            रोजगार के क्षेत्र में भी महिलाएं अभी तक पिछड़ी हुई हैं परन्तु धीरे-धीरे इस दिशा में निरन्तर संख्या बढ़ रही है। भारतीय राज्यों में महिलाओं को सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान अलग-अलग है और कुछ सेवाओं के लिए, केन्द्र की सेवाओं में भी आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं। निजी सेवाओं में जिनमें होटल इण्डस्ट्री, एयर होस्टेस, रिसेप्सनिस्ट, माॅडल जैसे क्षेत्रों में महिलाओं का वर्चस्व बना हुआ है। दूसरी ओर प्रशासनिक सेवा में मात्र तीन प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं। विश्वभर में सबसे ज्यादा वर्किंग वुमंस भारत में हैं, इसमें अब सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सर्वाधिक महिलाएं जा रही हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार 30 प्रतिशत महिलाएं साॅफ्टवेयर इण्डस्ट्री में एवं 10 प्रतिशत महिलाएं सीनियर मैनेजमेंट में कार्यरत हैं। भारत में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि ऊँचे पदों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है। हृाूमन रिसोर्सेज कंसल्टिंग और आउटसोर्सिंग एओन हेविट इण्डिया ने हाल में विभिन्न उद्योगों की 200 से अधिक कम्पनियों का अध्ययन किया। भारत के काॅलेजों में आट्र्स/काॅमर्स/ इंजीनियरिंग संकाय में 40 प्रतिशत स्नातक महिलाएं हैं और अध्ययन में पता चला है कि कम्पनियां महिला कर्मचारियों की भर्ती को व्यापारिक लाभ के रूप में देखती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी/आईटीईएस क्षेत्र में यह विशेष रूप से किया जाता है, जहां भर्ती के स्तर पर 30 प्रतिशत महिलाओं को चुना जाता है। रीटेल जाॅब्स में भर्ती स्तर पर भी महिलाओं को वरीयता दी जाती है लेकिन उत्पादन एवं सेल्स में महिलाओं का प्रतिशत 10 के आसपास है। मध्यम स्तर के प्रबंधन में महिलाओं का अनुपात कम हो जाता है (6 से 10 प्रतिशत आईटी क्षेत्र में) और वरिष्ठ प्रबन्धन में तो यह न्यूनतम हो जाता है (3 प्रतिशत से भी कम)। निदेशक बोर्ड स्तर पर तो महिलाओं की मौजूदगी 1 प्रतिशत से भी कम है। अध्ययन में 50 प्रतिशत से अधिक सीईओ का कहना था कि अगले पांच वर्षों में महिलाओं के वरिष्ठ प्रबन्धन तक पहुंचने की उम्मीद की जाती है।4
            भूमण्डलीकृत पूंजीवादी बाजार तंत्र द्वारा स्त्री मुक्ति के नाम पर प्रचारित विभिन्न प्रचार एवं मूल्य इसके एक आदर्श उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण बाजार द्वारा आयोजित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के पक्ष में प्रायः कहा जाता है कि इनसे स्वस्थ रहने व सुन्दर दिखने की जागरूकता में वृद्धि होती है किन्तु स्त्री को एक सुन्दर देह के रूप में दर्शकों (पुरुषों) के समक्ष प्रदर्शित किया जाता है। इसे विडम्बना ही कहा जाना चाहिए कि स्त्री की स्वतंत्रता और अभिमान के नाम पर आयोजन स्त्री एक देह के पुरुषोचित पूर्वाग्रह को ही पुष्ट करता है।5
            एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक लाख पच्चीस हजार महिलाएं गर्भधारण के पश्चात् मौत का शिकार हो जाती हैं। प्रत्येक वर्ष एक करोड़ बीस लाख लड़कियां जन्म लेती हैं लेकिन तीस प्रतिशत लड़कियां 15 वर्ष से पूर्व ही मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। गर्भवती महिलाओं पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 72 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं निरक्षर हैं। ऐसी स्थिति में वे गर्भधारण करने की उम्र, पोष्टिकता, भारी काम, काम के घण्टों, स्वास्थ्य जांच आदि से वंचित रहती हैं और सब कुछ भगवान पर छोड़ देती हैं। अब महिलाओं को समझना होगा कि आज समाज में उनकी दयनीय स्थिति भगवान की देन न होकर समाज में चली आ रही परम्पराओं का परिणाम है। इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक वह स्वयं अपने सामाजिक स्तर पर आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेगी, तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा।
            स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी हमारी कामकाजी जनसंख्या में से 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी हैं तथा उसी हिसाब से मजदूरी प्राप्त कर रही हैं। दूसरी ओर देखते हैं तो पता चलता है कि महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनकी गणना ही नहीं होती जैसे - चूल्हा -चैका, बर्तन, खाना, सफाई, बच्चों का पालन पोषण आदि। महिलाएं एक दिन में पुरुषों की तुलना में छः घण्टे अधिक कार्य करती हैं। आज विश्व में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं जबकि वे केवल एक प्रतिशत सम्पत्ति की मालिक हैं। भारत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना में कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी निम्नानुसार रही हैं -
क्र.सं. वर्ष  कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी
1          2006-07           40 प्रतिशत
2          2007-08           43 प्रतिशत
3          2008-09           48 प्रतिशत
4          2009-10           48 प्रतिशत
5          2010-11           48 प्रतिशत



            महानरेगा में कुल मानव दिवस में महिलाओं की भागीदारी में राजस्थान अग्रणी रहा है, जहां महिलाओं की भागीदारी 67.6 प्रतिशत रही हैं।
भारत में महिलाओं की शासन व्यवस्था में भागीदारी
            लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली के साथ-साथ भारत एक गणराज्य भी है और शासन व्यवस्था का स्वरूप संसदात्मक है। भारतीय शासन व्यवस्था में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व तो दूर की बात है, इसे कोई स्वीकारना ही नहीं चाहता जिसे महिला आरक्षण विधेयक स्थिति से समझा जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर 8 मार्च, 2010 को संसद एवं विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत राजनीतिक भागीदारी के लिए महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। यह विधेयक पिछले कई दशक से अधिक समय से लम्बित था परन्तु इसको मूर्त रूप देने के लिए लोकसभा में पारित होना शेष है। इस दिशा में कई बार प्रयास हुए परन्तु राजनीतिक दलों में इच्छाशक्ति के अभाव के चलते आज तक पारित नहीं हो पाया है।

लोकसभा में महिलाएं
            भारत में लोकसभा के प्रथम चुनाव 1952 में हुए। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा कुल सदस्य संख्या 552 से अधिक नहीं होगी। वर्तमान में लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 हैं, जिसमें दो आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं। लोकसभा में प्रथम निर्वाचन से आज तक के निर्वाचनों में महिला सांसदों के निर्वाचन की स्थिति निम्नानुसार रही -
वर्ष  कुल सदस्य संख्या   महिला सदस्य संख्या महिला सदस्यों का प्रतिशत
1952    499      22        4.4
1957    500      27        5.4
1962    503      34        6.8
1967    523      31        5.9
1971    521      22        4.2
1977    544      19        3.3
1980    544      38        5.2
1984    544      44        8.1
1989    517      27        5.2
1991    544      39        7.2
1996    543      39        7.2
1998    543      43        7.9
1999    545      49        8.65
2004    539      44        8.16
2009    545      60        11.0



केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाएं
            भारत में लोकसभा निर्वाचन में महिलाओं की भागीदारी की बात करते हैं तो इसकी स्थिति अत्यन्त कमजोर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् निर्वाचन की शुरूआत 1952 से लेकर अन्तिम लोकसभा चुनाव 2009 तक की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि लोकसभा में निर्वाचित होकर पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या वर्ष 2009 में सर्वाधिक 60 रही अर्थात् 11 प्रतिशत महिलाएं निर्वाचित हुई जो कि न्याय संगत नहीं है। इसके पीछे अनेक कारण हैं परन्तु महिलाओं के प्रति राजनीतिक दलों में न तो इच्छाशक्ति है और न ही वे पुरुष प्रधान की भूमिका को कम होने देना चाहते हैं। कई राजनीतिक दल तो इस कदर भयभीत हैं कि महिलाओं को टिकट देने से वे निर्वाचित होंगी और वे निर्वाचित होंगी तो पुरुषों का राजनीति से सफाया ही हो जाएगा।
            पिछले निर्वाचनों पर दृष्टि डालें और केन्द्रीय सरकार में मंत्रिपरिषद में स्थान बनाने वाली महिलाओं की संख्या पर ध्यान दें तो पता चलता है कि इसमें भी महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है।
वर्ष  मंत्रियों की कुल संख्या कुल  महिला मंत्रियों की संख्या  कुल  निर्वाचित महिला सांसद
            केबिनेट मंत्री   राज्य मंत्री (स्वतंत्र)  राज्य मंत्री     केबिनेट मंत्री   राज्य मंत्री (स्वतंत्र)   राज्य मंत्री    
2002    32        41        00        73        02        06        00        08        49
2004    33        45        00        78        02        06        00        08        44
2009    34        07        37        78        03        01        04        08        60

राजस्थान विधानसभा में महिला प्रतिनिधि
            राजस्थान में प्रथम विधानसभा चुनावों 1952 से लेकर वर्ष 2008 तक हुए तेरह विधानसभा चुनावों पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि प्रदेश में महिलाओं की जनसंख्या लगभग आधी है परन्तु विधानसभा में प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य रहा है।
क्र.सं. कुल सदस्य संख्या   चुनाव लड़ने वाली कुल महिलाएं निर्वाचित महिलाएं    प्रतिशत
1952    100      04        02        1.25
1957    176      21        09        5.11
1962    176      15        08        4.54
1967    184      19        07        3.80
1972    184      17        13        7.06
1977    200      31        08        4.00
1980    200      31        10        5.00
1985    200      45        17        8.50
1990    200      93        11        5.50
1993    200      97        10        5.5
1998    200      69        15        7.0
2003    200      118      12        6.0
2008    200      155      25        12.5



            भारत में महिलाओं की दशा को विविध पहलुओं के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास है। महिलाओं की स्थिति अलग-अलग राज्यों/जिलों/स्थानीय क्षेत्रों की पारिस्थिकीय भिन्नता के चलते एक जैसी नहीं है। अभी तक महिलाओं की दशा को कोई अच्छा नहीं कहा जा सकता परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में स्वयं के बल पर आगे बढ़ रही हैं और ये संकेत मिलना शुरू हो गया है कि चाहे सामाजिक क्षेत्र में शिक्षा हो, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा या अन्य शिक्षा हो सभी जगह महिलाओं ने अपना परचम फहराया है। चाहे संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा हो या राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा या अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं हो महिलाएं कहीं भी पीछे नहीं हैं। राजनीतिक सशक्तिकरण की बात करें तो हमें स्पष्ट संकेत मिले हैं कि स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत या 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधानों ने महिलाओं की प्रतिनिधि सहभागिता में निश्चित रूप से सकारात्मक वृद्धि हुई है। हालांकि इसमें अभी कुछ समस्याएं एवं चुनौतियां अवश्य है। आज महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर रूढ़ीवादी प्रवृत्तियों को पार कर विभिन्न व्यवसायों एवं सेवाओं में कार्यरत हैं, जिससे आर्थिक आत्मनिर्भरता भी आ रही है और केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई है। अपितु समाज एवं परिवार की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने प्रारम्भ हो गए हैं। सरकारी सेवा या राजनीति में सक्रिय महिलाओं को समाज में स्थान एवं सम्मान मिल रहा है। डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, जज, प्रशासनिक अधिकारी जैसे पदों पर महिलाएं आ रही हैं। राजनीति में तो वार्ड पंच, सरपंच, प्रधान, प्रमुख, विधानसभा सदस्य, लोक सभा सदस्य, राज्य सभा सदस्य, मंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जैसे पदों पर अपना दमखम दिखाने में पीछे नहीं हैं। खेलों, फिल्मों, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं, पत्रकारिता, लेखन आदि में भी महिलाओं ने अपने आपको स्थापित किया है।
            महिलाओं को समानता या बराबरी का दर्जा दिलाने की बातें करके या केवल लक्ष्य निर्धारित करने से काम नहीं चलेगा बल्कि लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति का होना और इस दिशा में कार्य करना परमावश्यक है। सरकार, स्वयंसेवी संस्थाओं या महिला हितैषी संगठनों को कागजी घोड़े दौड़ाने मात्र से काम नहीं चलेगा अपितु योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर उतारा जाए। एक बात तो निश्चित है कि महिलाओं को सशक्त करने के लिए कोई भगवान या मसीहा अवतरित नहीं होगा और न ही समाज को नारीवाद की परिभाषा पढ़ाने से कोई बात बनेगी, नारी मुक्ति के लिए महिलाओं को आगे आना होगा, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना होगा। सरकारें केवल महिला अधिकारों एवं कानूनों की संख्या में वृद्धि ना करें अपितु व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए ऐसे अधिकार एवं कानून बनाए जिससे वास्तविक सशक्तिकरण की अवधारणा को साकार रूप दिया जा सके। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार अथवा स्थानीय सरकार सभी को महिलाओं को महिला दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। केन्द्र सरकार महिलाओं को मातृत्व अवकाश दो बच्चों तक 2 वर्ष देती है जो कि बच्चे के जन्म से 18 वर्ष पूरी होने तक लिए जाने का प्रावधान है, वहीं राज्यों में स्थिति भिन्न है। राजस्थान में मातृत्व अवकाश अधिकतम 2 बच्चों तक प्रत्येक बच्चे पर 6 माह का प्रावधान है। इस प्रकार की भिन्नताएं महिला को महिला से भिन्न बनाती है।
            अन्त में कहा जा सकता है कि नारी को अपने अधिकारों एवं समाज में सम्मान पाने के लिए उस स्थान से उतारना होगा, जहां उसे पूजनीय कहकर बिठा दिया गया। उसे इन उतरती सीढ़ियों की दुर्गम यात्रा स्वयं करनी होगी। हमारे देश में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है परन्तु दिशा सकारात्मक दिखाई दे रही है।


सन्दर्भ सूची

1.         पैलिनीथूराई, जी., इण्डियन जनरल आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, वो. ग्स् टप्प् नं. 1, जनवरी-मार्च 2001, पृष्ठ 39
2.         मीहेनडल, लीला, अचीवमेन्ट एवं चैलेन्ज, योजना, अगस्त 2001, पृष्ठ 56
3.         लवानिया, एम.एम., भारतीय महिलाओं का समाजशास्त्र, रिसर्च पब्लिशर्स, जयपुर, 2004
4.         कार्यस्थलों पर भेदभाव से संघर्ष: प्रगति में बाधा, श्रम (आई.एल.ओ. की पत्रिका), संख्या 43, दिसम्बर 2011, पृष्ठ 19
5.         सेतिया, सुभाष, स्त्री अस्मिता के प्रश्न, सामायिक प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 92-93

No comments:

Post a Comment