Monday, February 13, 2012

सशक्त महिला - एक मिथ्या सच



सशक्त महिला - एक मिथ्या सच
डाॅ. धर्मवीर चन्देल



21वीं सदी में महिलाओं में नई चेतना व जागृति आई है। महिलाएं पुरूष के कदम से कदम मिलाते हुए विकास के नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है, विकास की लिखी जा रही इबारत में महिलाओं का भी बड़ा योगदान है। समाज का आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं हैं, जहां महिलाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज नहीं कराई है। यह सुखद संयोग हैं कि 21वीं सदी के पहले व दूसरे दशक की शुरूआत में देश के कई महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएं आसीन हैं। देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, कांग्रेस पार्टी व देश पर शासन कर रही यू.पी.ए. की अध्यक्ष, विपक्ष की नेता और भारत के सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री भी एक महिला ही बनी हुई है। वामपंथ के गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में 34 साल पुरानी कम्युनिस्ट सरकार को एक महिला ने ही सत्ता से उखाड़ने का कार्य किया है। पंचायतीराज के 73वीं संविधान संशोधन से घर की अब तक चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाएं भी घर की ड्योढ़ी लांगने लगी हैं। जिला परिषद्, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी है। सामाजिक स्तर पर भी महिलाओं ने अपने पैर अन्य दिशाओं की ओर बढ़ायें हैं। अब तक भारतीय समाज में यह माना जाता था कि माता-पिता की अर्थी के कांधा व मुखाग्नि का कार्य उनके पुत्र-पौत्र ही करते हैं लेकिन माता-पिता के पुत्र-पौत्र नहीं होने पर उनकी बेटियां ही इन रस्मों को पूरा कर वर्षों पुराने रिवाज को एक नया रूप देने में लगी हैं। ट्रक ड्राईवर बनने से लेकर बस की कंडक्टर के रूप में महिलाओं ने पुरूष आधिपत्य कार्यों में दखल बढ़ाया है। भारतीय संस्कृति ‘मातृदेवों भवः व यन्त्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ से अनुप्राणित रही है। नारी विधाता की अनुपम कृति मानी जाती है। उसमें करूणा, ममता, स्नेह, सहिष्णुता आदि के गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं। नर-नारी की जोड़ी जीवन रूपी नैया के दो पहिए माने जाते हैं। एक बिना दूसरे का जीवन अपूर्ण व अस्तित्वहीन माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि ‘प्रत्येक पुरूष की सफलता के पीछे किसी न किसी नारी का हाथ है।’ लेकिन, विडम्बना है कि भारतीय समाज में महिलाओं की दुर्बल सामाजिक स्थिति के कारण देश की आधी जनसंख्या के साथ असमानता का व्यवहार होता है। यद्यपि स्थानीय प्रशासन के माध्यम से महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रयास किए गए हैं। महिलाओं की दशा और उन पर होने वाले अत्याचार इतने शोषणपूर्ण हैं कि जब तक पूरा समाज निश्चय एवं दृढ़ता से युद्ध स्तर पर प्रयास नहीं करेगा तब तक महिलाएं सामाजिक न्याय से वंचित ही रहेगी।1 तरक्की के तमाम दावों के बावजूद देश की आधी आबादी अभी भी अपनी पहचान नहीं बना पाई है। यह सही है कि महिलाएं विकास के शिखर छूना चाहती हैं, अपने हिस्से का आकाश लेना चाहती हैं लेकिन ऐसी बहुत कम महिलाएं हैं, जिसने पुरूष प्रधान समाज के खिलाफ बगावत के झण्ड़े रोंपे हैं। देश की 70 प्रतिशत जनसंया अभी भी गांवों में निवास करती हैं और इस जनसंख्या का आधा हिस्सा महिलाएं ही हैं। वे जो रात-दिन घूंघट की ओट में रात-दिन खेत-खलिहानों में खपती हैं, खेती और पशुपालन के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है। ऐसे में यह सवाल उभरता है कि महिलाओं को इतने वर्षों बाद भी कोई स्थाई पहचान क्यों नहीं मिल पाई।2 स्वतंत्रता सेनानी एवं समाजवादी चिन्तक डाॅ. राममनोहर कहा करते थे कि ‘पत्नी का पैर रसोई में है तो पति को बच्चे के पालने के पास होना चाहिए।’ भारतीय समाज में महिला बड़ी विवादास्पद रही है। इतिहास में सामाजिक-सांस्कृतिक विरोधाभासों और द्विअर्थीय व्यवस्थाओं का एक भाग महिलाओं पर भी स्थापित हैं। इसीलिए भारतीय महिलाओं के आचरण और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि भी बैठी हुई रही है। जो लोग महिलाओं के गुणों के समर्थक हैं, वे उन्हें विदुषी तथा पूजा योग्य मानते हैं, लेकिन जो लोग महिलाओं के आचरण संबंधी संदर्भों को निम्न स्थिति में देखते हैं वे इन संबोधनों से अलग हैं। इस प्रकार महिलाओं की प्रस्थिति के संदर्भ में भारतीय समाज में दोहरे मूल्य हैं। महिलाओं के प्रति दोहरी-छवि का होना अपने आप में उनकी निम्न प्रस्थिति का परिचायक है। सामान्यतः किसी जाति पर विचार ना करें फिर भी सामाजिक तथा आर्थिक आधार पर महिलाओं को पराधीनता के रूप में स्वीकार किया जाता है। सांसी जनजाति में यह कहावत है कि ‘युद्ध और राजनीति पुरूषों के लिए है जबकि सम्पत्ति एवं बच्चे महिलाओं के लिए’। ऐसा भी कुछ आधार केरल के नायरों में भी हैं, लेकिन जब हम जाति व्यवस्था के संदर्भों में बात करते हैं तो चित्र बदल जाते हैं। हिन्दू समाज की वैचारिकी में महिला चरित्र को सती होना चाहिए वह पति परमेश्वर के अधीन है, उसे दूसरे पुरूषों की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहिए और यहां तक पति की मृत्यु के बाद सती हो जाना चाहिए। इन सारे तथ्यों का संबंध उन भारतीय मूल्यों से भी है, जो समाज में विद्यमान हैं। यह कहा जाता है कि भारतीय महिलाओं के लिए दुःख और आपदा में अन्तर करना कठिन है। धार्मिक आधार पर कर्म और फल की अवधारणा भी महिलाओं को एक विशिष्ट परिस्थिति में पहुंचा देती है। ऐसा भी कहा जाता है कि महिलाओं के ये संबंध संयुक्त परिवार, पितृ सत्तात्मक परिवार, वैवाहिक संबंध और जातियों द्वारा स्थापित प्रतिबन्धों से बंधे हुए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महिलाओं की प्रस्थितियों में परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन भारत में महिलाओं की स्थिति से संबंधित दो विचारधाराएं हैं - पहली विचारधारा यह मानती है कि महिला और पुरूषों के संबंध बराबरी के ऊपर केन्द्रित थे, लेकिन दूसरी विचारधारा यह कहती है कि महिलाओं का स्थान अपमानजनक था। सम्पत्ति के उत्तराधिकार, विधवाओं की प्रस्थिति, धार्मिक अधिकार और सामाजिक जीवन में भागीदारी के संबंध में परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किए गए हैं। मध्यकालीन व्यवस्था में बाह्य आक्रमणों के कारण धार्मिक धारणाओं का विकास हुआ और बहुत से सुधारवादी सन्तों ने महिलाओं की प्रस्थिति को बदलने का प्रयास किया। ब्रिटिशकाल में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को बदलने की कोशिश की गई लेकिन उन्होंने पारम्परिक महिला संबंधी मूल्यों और सामाजिक व्यवहार को बदलने का बड़ा प्रयास नहीं किया। आधुनिक समय एक ऐसा समय था जब महिलाओं के नए आन्दोलनों ने कई नए आधारों को जन्म दिया था। महिलाओं के संबंध में अब नई व्याख्याएं हमारे सामने आई हैं। इस व्याख्या का संबंध कुछ ऐसे सूचकांकों से है, जो मानव विकास में महिलाओं के पिछड़े हुए स्थान को दर्शाती है। ये सूचकांक उन संदर्भों के भी प्रतीक हैं जो यद्यपि जातिगत व्यवस्थाओं से परे हैं, पर फिर भी जातियों में महिलाओं में हो रहे परिवर्तनों को नाप सकते हैं। जैसे - शिक्षा के संदर्भ में सम्पूर्ण भारत की जानकारी ये बताती हैं कि महिला शिक्षा का बहुत निम्न स्थान है। हाल ही जारी मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि भारत में महिलाओं की स्थिति दर्दनाक है। रिपोर्ट के अनुसार गर्भवती महिलाओं की मृत्युदर अधिक है, बहुत बड़ी समस्या महिलाओं के कुपोषण की है, साक्षरता दर बहुत नीची है और लड़कियों की भ्रूण हत्याएं अधिक है। भारत में प्रकाशित अपराध संबंधी आंकड़े यह बताते हैं कि महिला के विरूद्ध अपराधों में वृद्धि हो रही है तथा दहेज हत्याओं, बलात्कार तथा ऐसे ही अपराधों में वृद्धि हुई है। घरेलू हिंसा का सबसे बड़ा भार महिलाओं के ऊपर है। विधवाओं की स्थिति पर सामाजिक चिन्ता बढ़ी है। ये सभी तथ्य महिलाओं की वर्तमान प्रस्थिति के संदर्भों के परिचायक हैं।3 महिलाओं के साथ उत्पीड़न की घनाएं बढ़ी हैं, तेज रफ्तार जिन्दगी में इंसान ने शोषण के नए तरीके इजाद कर लिए हैं। महिलाओं के साथ अधिकांशतः मामले घरेलू हिंसा से संबंधित होते हैं। घरेलू हिंसा से तात्पर्य घर-परिवार में महिला को उसी परिवार के किसी सदस्य अथवा सदस्यों द्वारा दी जाने वाली यातना, क्रूरता, उत्पीड़न, प्रताड़ना तथा शोषण या इनकी सम्भावना से हैं। हिंसा की परिभाषा के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, मौखिक, लौंगिग, यौनिक, आर्थिक दुव्र्यवहार आदि के साथ अधिकारों से वंचित रखना भी है। पारिवारिक उत्पीड़न से आज भी महिला त्रस्त हैं। अनेक महिलाएं परिवार में अपने आपको न केवल उपेक्षित मानती हैं अपितु वे अपने ही परिजनों की प्रताड़ना का शिकार भी हैं, महिलाओं के प्रति यह पारिवारिक हिंसा हैं। घरेलू हिंसा की परिभाषा के अन्तर्गत वे सब क्रियाएं, प्रक्रियाएं और प्रतिमान सम्मिलित हैं, जो कि शारीरिक, मौखिक, दृश्यगत अथवा अदृश्य एवं यौन शोषण से घर-परिवार में महिला चाहे वह अविवाहित (लड़की या बहिन) हो या विवाहित भय, आक्रमण, प्रताड़ना के रूप में पीड़ा व चोट अनुभव करते हो और इन्हें निम्न व छोटे होने का अहसास कराया जाता हो।4 इतिहास के कालखण्डों को देखे तो 510 ईस्वी के एरण अभिलेख में सती प्रथा का चित्र है, सीता की अग्नि परीक्षा का ज्वलंत उदाहरण है और महाभारत में द्रोपदी का पांच पुरूषों की पत्नी स्वीकार करने का उल्लेख है। महिलाओं को धर्म, समाज, परिवार का वास्ता देकर उनकी प्रमिभा को रोका जाता रहा है। ‘एक बार जरथुस्त्र एक बुढ़िया से पूछता है, बताओ, स्त्री के बारे में सच्चाई क्या है? वह कहती है, बहुत सी सच्चाईयाँ ऐसी हैं, जिनके बारे में चुप रहना ही बेहतर है। हाँ, अगर तुम औरत के पास जा रहे हो तो अपना कोड़ा साथ ले जाना मत भूलना’ - नीत्शेः जरथुस्त्र उवाच से यह है हजारों सालों से चले आए पुरूष-संस्कार का सार। शब्द चाहे जो भी हों, पुरूष नारी को जो कुछ समझता है, वह इन पक्तियों से स्पष्ट है।5 मनु की बात आज भी सत्य प्रतीत हो रही है कि महिला का कहीं भी स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। मनुस्मृति के इतने सालों बाद भी महिला परतन्त्रता की छांव में ही रहती आई हैं। बचपन में पिता, जवानी में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन उसका जीवन गुजरता है। जो महिलाएं इन सम्बन्धों को नहीं समझती हैं, उसे बदचलन, वेश्या जैसी उपमाओं से नवाजा जाता है। साहित्यकार एवं समाज विज्ञानी राजेन्द्र राव लिखते हैं कि - ‘सामन्ती समाज ने स्त्री को सिर्फ तीन नाम दिए हैं - पत्नी, रखैल और वेश्या’। इसके अलावा वह किसी चैथे सम्बन्ध का स्वीकार नहीं करता है। जब औरत को वह संरक्षण, यानी रोटी, कपड़ा और मकान देने के साथ अपना नाम देकर सामाजिक स्वीकृति देता है तो वह कहता है पत्नी, लेकिन जब संरक्षण देकर अपना नाम नहीं देता तो वह रखैल है। जहां वह न संरक्षण देता है न सामाजिक स्वीकृति, तो वह वेश्या होती है, क्योंकि संरक्षण के लिए उसे बहुतों पर निर्भर रहना पड़ता है, नतीजे में सामाजिक सम्मान का प्रश्न ही नहीं उठता है। वे आगे कहते हैं कि कोई भी औरत आत्महत्या या अध्यात्म का चुनाव स्वेच्छा से नहीं करती उसके पीछे हमेशा सामाजिक और आर्थिक मजबूरियों के जाने-अनजाने दबाव होते हैं। बचाव का जब कोई रास्ता नहीं होता तो उसे इन्हीं दोनों विकल्पों में मुक्ति दिखाई देती है। वस्तुतः सामन्ती व्यवस्था ने उसे ऐसे अचूक तरीकों से जकड़ा है कि वहां छोटे-छोटे और बड़े से बड़े घराने की औरत में काई अन्तर नहीं है। चरित्र या सतीत्व को लेकर उंगली उठाए जाने पर सीता को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा था। न जाने कितनी रानी-पटरानियों को पुत्र न देने के अपराध में ‘कौवे उड़ाने वाली’ बने रहकर शेष जीवन गुजारना होगा। कौन सी स्त्रियां होंगी जो ऐसी असमभव अग्नि परीक्षा से बच पाती होंगी, इसमें शक है। ये दिन-दहाड़े ‘सजाए-मौत’ की सामाजिक स्वीकृतियां हैं।6 भारत में ‘जौहर’ व ‘सती’ होना भी महिला के हिस्से ही आया है। हालांकि, औपनिवेशिक काल में राजा राममोहन राय ने सन् 1829 में सती प्रथा पर रोक लगवा दी थी, लेकिन कालान्तर में क्षत्रिय वर्ण में सती प्रथा की परम्परा चलती रहीं। महिलाओं को पति की मृत्यु पर जबरन आग के हवाले झोंका जाता रहा। देश के इतिहास में कहीं ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें पत्नी की मौत पर पति सती हुआ हो। इतिहास में कई जगह उल्लेख मिलते हैं कि एक जाति विशेष के लोगों में पति की आकस्मिक मौत पर समाज के पंच-पटेल उसे स्वर्ग में जाने की दुहाई और रानी सती का उदाहरण देकर पति की चिता के साथ जलने के लिए प्रेरित करते हैं। वह मना करती है तो परिवार की ओर से तरह-तरह के दबाव बनाकर जलने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसके बाद भी यदि ना-नुकर जारी रहती है तो जबरन पति की चिता के साथ उसे भी जला दिया जाता है। रामचरित्रमानस की सुलोचना, अमरसिंह राठौड़ की हाड़ी रानी से लेकर देवराला की रूप कंवर और महोबा सतपुरूष की चरणशाह जैसी अनेक नारियों के चिता स्थल को धार्मिक संगठन सती मैया का नाम देकर जमकर नोट कमाते हैं।7 ऐसा भी देखा गया है कि जिस परिवार की स्त्री अपने मृत पति के साथ विवशता व अज्ञानता के साथ जल गई, उस परिवार को समाज ने विश्वास दिया ताकि सती परम्परा को भली-भांति बरकरार रखा जा सके। इसी सम्मान को पाने के लिए समय-समय पर परिवार वालों ने, सामंती व्यवस्थापकों ने, धार्मिक मठाधीशों ने, बेवाओं की भावार्वश दशाओं का फायदा उठाकर उनको जला दिया तथा उसे ‘सती मैया’ शब्द से महिमामंडित कर दिया, इस देश का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। बल्कि हमारे धर्मग्रन्थ कहते हैं कि मृत शरीर के साथ नारी को जलाना बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं है। लेकिन, धर्म के दलालों ने भोली-भाली जनता की अज्ञानता का फायदा उठाकर उसे भी तर्कसंगत बना दिया। साथ ही, यह प्रचारित भी कर दिया कि सती होने वाली नारी को स्वर्ग मिलेगा और वहीं पति से एक बार फिर मिलन होगा। अगर फैलाए गए झूठ में जरा भी सच्चाई होती तो आदमी भी अपनी पत्नी के मृत शरीर के साथ जलकर सती हो जाता। कुछ लोग गोली मारकर, नदी, तालाब सहित अन्य माध्यमों से मौत को गले लगा लेते हैं, वास्तव में ‘सती प्रथा’ में कुछ भी सत्य होता तो ये सभी दुखी मनुष्य सती वाले रास्ते को चुनते, लेकिन आदमी ने उसे कभी भी नहीं चुना क्योंकि यह सब निराधार और पाखण्ड़ का जाल मात्र हैं।8 संसार के सभी धर्मों की धुरी है मानवता, क्योंकि सभ्यता का अर्थ ही है एक-दूसरे मानव की सत्यता करना। यदि मानव ऐसे नहीं करेंगे तो उनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा? मानवतावाद का अर्थ, ‘मानव का कल्याण’। यह मानवता का दिन सभ्यता के अंकुरण के साथ ही प्रस्फुटित हुआ है। भारत में वैदिक सभ्यता मानी जाती है। इसका आधार श्रुति और स्मृति है। श्रुति-मुनियों ने दिव्य आकाशवाणी सुनी ...... यह श्रुति है, फिर उसे स्मरण कर अपने शिष्यों को सुनाया यह ‘स्मृति’ है। ऋग्वेद के अनुसार प्रथम नारी के रूप में पृथ्वी को माना गया है। ‘स्वेचा प्रथिवि भवानिक्षरा निवेशिनी यच्छा नः शर्म सप्रथः’ - ऋग्वेद सूत्र 22 (6) (15) आज भी हिन्दुओं में प्रचलित सभी पूजाओं में सबसे पहले पृथ्वी के पूजन की परम्परा है। वर्तमान काल में जब से संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तभी से महिला और मानवाधिकारों की सोच आरम्भ हो गई थी। प्रकृति ने स्त्री को स्वाभाविक कोमलता प्रदान की है और पुरूषों को बल। इसी कारण स्त्रियों की सारे संसार में स्थिति पुरूष के पश्चात् मानी गई है। महिलाओं के विरूद्ध हिंसा को समाप्त करने के अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों के बावजूद महिलाएं भारत में सामान्य रूप से न सिर्फ हिंसा का शिकार बनती है अपितु उन्हें असमानता के दौर से गुजरना पड़ता है। महिलाओं के मानवाधिकार हनन, बलात्कार, दहेज, मृत्यु, अपहरण और यौन-उत्पीड़न जैसे अपराध लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं।9 महिलाओं के विरूद्ध बढ़ते अपराधों के लिए समाजशास्त्री व समाज सुधारक वर्गीकृत सामाजिक ढांचे को दोषी ठहराते हैं। वे हिन्दू समाज के इतिहास को चार भागों में विभाजित करते हैं -(अ) वैदिककाल, जो 600 बी.सी. के आस-पास।(ब) वैदिककाल के बाद का समय जो क्रिश्चियन संवत् को तीसरी शताब्दी तक चलता है।(स) धर्मशास्त्रों का युग जो 11वीं शताब्दी में समाप्त हो जाता है।(द) आधुनिककाल उनका मत है कि वैदिक युग में महिलाओं को उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उनके यौन सम्बन्धों व कौमार्य का सम्मान किया जाता था और उनके मातृत्व एवं वैवाहिक जीवन की रक्षा की जाती थी। इसलिए महिलाओं के विरूद्ध अपराध आम नहीं थे। लेकिन, वैदिक काल के बाद स्थितियाँ बदलने लगी क्योंकि जाति प्रथा प्रबल हो गई और समाज वर्गीकृत हो गया। इस युग में यद्यपि ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों का उनकी विद्वता एवं शौर्य के लिए सम्मान होता था, वैश्यों एवं शूद्रों के प्रति भेदभाव रखा जाता था। यह भेदभाव उस समय यातनाजनक हो गया जब मनु, बृहस्पति या याज्ञवल्क्य जैसे कानून बनाने वाले व्यक्तियों ने समाज में महिलाओं को पुरूषों से कम स्तर का दर्जा दिया। शूद्र महिलाओं को उनके माता-पिता या पतियोें की सम्पत्ति माना गया और उन्हें उत्तराधिकार के मामले में भी समानता नहीं दी गई। अनेक समाज सुधारकों ने समाज में महिलाओं के विरूद्ध होने वाले भेदभाव के लिए मनु को दोषी ठहराया। महिला समाज सुधारकों ने हिन्दू समाज के प्रचलित पुत्र पसंदी नियम को निरस्त करने की वकालत की, क्योंकि यह नियम न सिर्फ महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव करता है, वरन् भू्रण हत्या को प्रोत्साहित करता है। राज्य से अपेक्षा की गई कि वह लोगों को इस बारे में शिक्षित करें कि इस संसार के बाहर कोई स्वर्ग नहीं है और महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, व्यापक प्रचार-प्रसार करें। सामाजिक, वैज्ञानिक और क्रियावादी, बलात्कार के प्रकरणों में वृद्धि के लिए नैतिक शिक्षा के अभाव को दोषी ठहराते हैं। उनका मत है कि संयुक्त परिवार प्रणाली के विघटित हो जाने पर आचरण संहिता को विकसित करने के बारे में जो थोड़ी बहुत सम्भावना थी, वह भी समाप्त हो गई,य जिसके फलस्वरूप बलात्कार जैसे अपराध होने लगे।10 नारी को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया है। महिला को अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए समय-समय पर और भी कानून बनाए गए हैं, जिससे कानूनी दृष्टि से महिलाओं की स्थिति सशक्त हुई है। संविधान में पुरूष की तरह महिला को भी निम्न अधिकार प्रदान किए गए हैं - समानता का अधिकार। स्वतन्त्रता का अधिकार। शोषण के विरूद्ध अधिकार। धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार। शिक्षा और संस्कृति का अधिकार। संवैधानिक संरक्षण का अधिकार।11 भारतीय संविधान के अतिरिक्त महिलाओं को संरक्षण देने वाले महत्वपूर्ण कानून व अधिनियम निम्न हैं - दहेज निषेध अधिनियम - 1961 वेश्यावृत्ति निवारण अधिनियम - 1956 (संशोधन - 1986) हिन्दू विवाह अधिनियम - 1955 विशेष विवाह अधिनियम - 1954 शरियत प्रार्थना अधिनियम - 1937 सिनमैटोग्राफ अधिनियम - 1952 मुस्लिम विवाह भंग अधिनियम - 1959 बाल-विवाह अवरोध अधिनियम - 1929 चिकित्सा गर्भ समाप्ति अधिनियम - 1956 हिन्दू गोद एवं भरण पोषण अधिनियम - 1956 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम - 1956 दिल्ली पुलिस अधिनियम - 1978 (महिलाओं के साथ छेड़छाड़ी)12 संक्षेप में महिलाओं को निम्न अधिकार प्रदान किए हैं -1. दहेज निषेध अधिनियम - दहेज निषेध अधिनियम, 1961 को दण्ड के मामले में अधिक सशक्त करने के उद्देश्य से सन् 1986 में पुनः संशोधित किया गया। अधिनियम में दहेज लेने व देने के लिए उकसाने के लिए न्यूनतम दण्ड पांच वर्ष की कैद तथा 15 हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया।2. अनैतिक व्यापार (निरोधन) अधिनियम - अनैतिक व्यापार (निरोधन) अधिनियम 1986 महिलाओं व लड़कियों में वेश्यावृत्ति के उद्देश्य से अनैतिक व्यापार को प्रतिबंधित करता है। इस अधिनियम में वेश्याओं के पुनस्र्थापना तथा उनको नौकरी आदि के प्रावधान पर विशेष महत्व दिया है।3. हिन्दू विवाह अधिनियम - हिन्दू विवाह अधिनियम सभी हिन्दुओं के साथ बौद्धों पर भी लागू होता है। (अ) वर/वधू की पहली पत्नी/पति जीवित नहीं होनी चाहिए। (ब) मानसिक रोगी व मानसिक समस्या से ग्रस्त नहीं हो। (स) लड़के की आयु 21 वर्ष तथा लड़की की आयु 18 वर्ष पूर्ण होनी चाहिए।4. बाल विवाह प्रतिरोध - बाल विवाह प्रतिरोध (संशोधन) अधिनियम 1976 के तहत विवाह के लिए लड़कियों की आयु 15 से बढ़ाकर 18 वष्ज्र्ञ कर दी गई हैं।5. स्त्री अशिष्टरूपण - स्त्री अशिष्टरूपण (प्रतिबन्ध) नियम 1986 की प्रमुख विशेषताएँ निम्न है। समस्त विज्ञापन, प्रकाशन आदि जिसमें महिलाओं के प्रतिनिधित्व की किसी भी रूप में अश्लीलता है, को प्रतिबंधित करता है। महिलाओं के अशिष्टरूपण की परिभाषा की गई है, जिसके अनुसार किसी महिला के शरीर को इस प्रकार से चित्रित न किया हो, जिसे वह अशिष्ट दिखाई दे अथवा उसका मान घटाए या सार्वजनिक नैतिकता को आघात पहुंचाए। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 के अन्तर्गत शादी के सात वर्ष की अवधि के भीतर किसी महिला की अप्राकृतिक मृत्यु को ‘दहेज हत्या’ के दायरे में रखा गया है। इसके तहत दोषी को आजीवन सजा का प्रावधान है। इसी तरह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 314 के अन्तर्गत यह प्रावधन है कि किसी महिला की इच्छा के विरूद्ध यदि कोई उसका गर्भपात कराता है, तो उसे आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 125 के अन्तर्गत कोई भी महिला किसी भी स्थिति में अपने तथा अपने पुत्र-पुत्री के भरण-पोषण के लिए पति के विरूद्ध कोर्ट में केस दायर कर सकती है। हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 18 के अन्तर्गत हिन्दू पत्नी को अपने जीवनकाल में अपने पति से भरण-पोषण पाने का हक होता है। इसी अधिनियम की धारा 19 के अन्तर्गत विधवा पुत्रवधू को भी अपने पति की मृत्यु के पश्चात् अपने ससुर से भरण-पोषण प्राप्त करने का हक होता है।13 नारी को कानूनन इतने अधिकार देने के बाद भी नारी की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आए हैं, उसे ‘भोग्या व पैरों की जूती’ ही समझा जाता है। हांलाकि आज ‘नगर वधू’ कुप्रथा खत्म हो गई लेकिन कस्बों तक वेश्यालय खुल गए। दहेज निषेध अधिनियम कानून के इतने दशकों बाद भी आग में झोंका जा रहा है। दहेज के लालची दुल्हन के हाथों की मेहंदी सूखने से पहले ही उत्पीड़न व यातनाएं देना शुरू कर देते हैं। दहेज नहीं लाने, कम लाने पर महिलाओं को अनेक त्रासदियों से रूबरू होना पड़ता है। इसी तरह अनैतिक व्यापार (निरोधन) अधिनियम कानून की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। महिलाओं को दो जून की रोटी के लिए अपना जिस्म बेचने को अभिशप्त होना पड़ रहा है। सरकार की ओर से वेश्याओं के पुनर्वास की घोषणा के बाद भी परिणाम डराने वाले हैं। यह एक क्रूर सत्य है कि जिस्मफिरोशी से जुड़ी बस्तियाँ आबाद हैं। सरकार का नकारापन यहां स्पष्ट देखा जा सकता है कि अब तो इस धन्धे में दूसरे देश से भी लड़कियाँ मंगाई जाने लगी हैं। कानूनन बाल विवाह के अपराध घोषित होने के बाद भी अक्षय तृतीय को हजारों बाल विवाह सरकार की नाक के नीचे सम्पन्न हो जाते हैं। दुधमँुहें बच्चों के भी ‘हाथ पीले’ कर दिए जाते हैं। एक पत्नी प्रथा होने के बाद भी समृद्ध लोग कई शादियाँ कर लेते हैं। कई समाज तो ऐसे हैं, जहां बहुपत्नी प्रथा का रिवाज है। ऐसे भी उदाहरण सामने आते हैं कि सरकारी कारकून बनने के बाद पहली पत्नी को गांव में छोड़कर शहर में दूसरा विवाह कर लेते हैं। आम के साथ-साथ खास लोग भी बहुपत्नी प्रथा के समर्थक हैं। स्त्री को आज पूरी तरह विज्ञापन की वस्तु बना दिया है। सभी तरह के विज्ञापनों में स्त्री को ही दिखाया जा रहा है। नारी को फिल्म व चलचित्रों में कुटिल, षडयंत्रकारी, कामुक, अश्लील मुद्राओं में उत्पाद की तरह पेश किया जा रहा है। महिलाओं के होते उत्पीड़न को देखकर चिंतित उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसलें में महिलाओं के ‘लैंगिक उत्पीड़न’ को रोकने के लिए निर्देश जारी किए थे। न्यायालय ने पहली बार ‘लैंगिक उत्पीड़न’ की परिभाषा दी। लेखिका मैत्रेयी पुष्पा लिखती हैं - ‘औरत जिससे प्यार करती है तन-मन से प्यार करती है। उसमें कोई छल, कपट या स्वार्थपरता नहीं होती। लेकिन मर्द के बारे में ऐसा शत-प्रतिशत सही नहीं होता इसलिए औरत अनेक बार ठगी जाती है।’ दरअसल, जो भी लड़की लीक से हटकर अपने फैसले खुद लेने लगती है, समाज उसे किसी भी कीमत पर सहन नहीं करता। वह इस मनोवृत्ति से स्वयं को खतरे में महसूस करने लगता है, जिस समाज को पुरूष और स्त्री दोनों को मिलकर बनाना चाहिए था वह पहले से ही पुरूष वर्चस्व वाला रहता आया है।14भारत में पंचायतीराज पंचायतीराज अर्थात् ग्राम गणतन्त्र की परिकल्पना भारतीय राजनीतिक जीवन एवं चिंतन में अत्यन्त प्राचीन हैं। समुदाय विकास कार्यक्रम (1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा (नेशनल एक्सटेंशन सर्विस 1953) की कार्यप्रणाली की जांच करने और इन कार्यप्रणाली में सुधार लाने संबंधी उपाय सुझाने के लिए जनवरी, 1957 में भारत सरकार में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट नवम्बर, 1957 में प्रस्तुत की। इसमें ‘जनतांत्रिक विकेन्द्रीकरण’ योजना स्थापित करने की सिफारिश की गई थी।1573वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 - इसके तहत महिलाओं को 33 फीसदी के आरक्षण का प्रावधान किया गया। महिलाएं आरक्षण के आधार पर चुनकर आने लगी हैं लेकिन उनके फैसलों में पुरूष वर्ग की हस्तक्षेप या दखल देखी जा सकती है। समाज में अभी उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन पाया है। हालांकि, 73वें संविधान संशोधन से वे स्थानीय स्तर की समस्याओं का निदान करने लगी हैं, घर की ड्योढ़ी या चाहरदीवारी से उनके कदम बाहर निकलने लगे हैं लेकिन पुरूष प्रधान समाज उसे चारों ओर से घेरे हुए हैं। चुनाव जीतकर वे जिला प्रमुख, प्रधान और सरपंच बन गई हो लेकिन इन तमाम कार्यों के लिए भागदौड़ या जरूरी कार्य उनके पति या परिवार के निकटवर्ती मर्द ही करते हैं। इतना ही नहीं अब तो सरपंच पति को ‘एस.पी.’ के नाम से जाना जाने लगा है। पंचायत के जरूरी काम वे ही निपटाते हैं और उनके लिए निर्धारित कुर्सियों पर ये लोग ही बैठते हैं। आए दिन ऐसा भी देखने में आता है कि पंचायत समिति व पंचायत की बैठकों की अध्यक्षता भी उनके पति ही कर लेते हैं। जनप्रतिनिधि महिला यदि दलित वर्ग की है तो उसे लिए सरपंच का पद ‘कांटो का ताज’ साबित होता है। समाज के दबंग उसे हिकारत भरी निगाहों से ही नहीं देखते बल्कि उसके मार्ग में कई तरह की परेशानियाँ पैदा करते हैं। उसके कराए विकास कार्यों पर अंगुली उठाने के साथ ही राष्ट्रीय पर्व (स्वतंत्रता एवं गणतन्त्र दिवस) के मौकों पर उसे झण्डारोहण तक नहीं करने दिया जाता है। कई स्थानों पर तो ‘दबंग’ की परेशानियों से जूझते हुए कई दलित महिला जनप्रतिनिधियों ने अपने त्यागपत्र भी दिए हैं। बहरहाल, राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार ने महिलाओं की स्थानीय स्तर पर उपस्थिति बढ़ाने के लिए सन् 2008 में महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण 50 प्रतिशत कर दिया था। इससे वर्ष 2009 में हुए पंचायतीराज के चुनाव महिलाओं के पचास फीसदी आरक्षण के आधार पर हुए। दबी, कुचली, वंचित महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण मिलने से उनकी भागीदारी में वृद्धि हुई। लेकिन, चुनाव के थोड़े दिन बाद ही कुछ लोगों ने न्यायालय में 50 फीसदी आरक्षण को रद्द करने की रिट लगा दी। हालांकि, इसका निर्वाचित प्रतिनिधियों पर कोई असर नहीं पड़ा लेकिन प्रकरण अभी न्यायालय में विचाराधीन है। इसी तरह केन्द्र के स्तर पर भी महिलाओं के आरक्षण को बढ़ाने वाला विधेयक 108 भी संसद में लम्बित है। 14 साल की लम्बी जद्दोजहद व विरोध के भंवर के बीच महिला आरक्षण विधेयक अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर यूपीए सरकार ने 10 मार्च, 2010 को 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पारित हो गया। इस विधेयक को कानून का रूप लेने में लम्बी यात्रा करनी है। महिला आरक्षण विधेयक अभी लोक सभा की प्रवर समिति के पास है, उसके बाद वह लोकसभा में पेश किया जाएगा। राज्यसभा में 9 मार्च, 2010 को 108वां संविधान संशोधन, 2008 (लोकसभा और राज्यसभाओं में 33 फीसद महिला आरक्षण) विधेयक पर चर्चा में भाग लेते हुए प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने ‘महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण को एनीबेसेंट, कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू आदि महिलाओं के प्रति श्रद्धा का छोटा सा प्रतीक बताया था।’ अगर आंकड़ों पर गौर किया जाए तो अमेरिका में महिला सांसदों का प्रतिशत 21.8 है। यूरोप में 19.1 प्रतिशत है जबकि भारत में यह आंकड़ा 5 से 11 प्रतिशत रहा है। वर्तमान में लोकसभा के 543 सांसदों में से 59 महिला सांसद है।16 यदि बिल को लेकर यह कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि - ‘पिछले 14 साल की लगातार कोशिशों के बाद स्थितियाँ कुछ बदली हैं। सांसदों को समझ में आने लगा है कि एक न एक दिन यह होना ही है। दोनों बड़े दलों का नेतृत्व भी समझ गया है। महिलाओं के वोट बैंक को भुनाने का यही रास्ता बचा है, उधर महिला संगठनों का दबाव है। ऐसे में ‘पुल्स एण्ड प्रेशर्स’ के जरिए बिल ने अपनी पहली बाधा पार कर ली है।’
विदेशों में महिला आरक्षण एक नजर में दक्षिण अफ्रीका पार्टियों पर निर्भर, सत्तारूढ़ अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने 2007 के चुनावों से महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया है। स्पेन अनिवार्य पार्टी कोटा, हर पार्टी को कम से कम 40 प्रतिशत और अधिकतम 60 प्रतिशत एक ही वर्ग के प्रत्याशी रखने की अनिवार्यता नेपाल अनिवार्य पार्टी कोटा, प्रत्येक पार्टी द्वारा 50 प्रतिशत अनिवार्य कोटा देना होता है। जर्मनी पार्टियों पर निर्भर, लेफ्ट-ग्रीन एलायंस द्वारा 50 प्रतिशत कोटा दिया जाता है। सत्तारूढ़ क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक तिहाई टिकट और पार्टी पद महिलाओं के लिए आरक्षित रहता है। ब्रिटेन पार्टियों पर निर्भर बांग्लादेश संसदीय आरक्षण 345 सीटों में से 45 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित ग्रीस कोटा पार्टियों पर निर्भर, सत्तारूढ़ सोशलिस्ट कम से कम 40 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रखते हैं। अमेरिका आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। रूस कोई प्रावधान नहीं है। भारत आरक्षण प्रावधान की प्रक्रिया प्रक्रियाधीन है। पाकिस्तान 17.05 प्रतिशत महिलाओं को आरक्षण प्राप्त है।विश्व के विभिन्न देशों में कहां कितनी महिलाएँ महात्मा गांधी ने कहा है - ‘स्त्री तो पुरूष की सहचरी है, उसे पुरूष के समान ही मानसिक क्षमताएं प्राप्त हैं। उसे पुरूष की गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है और उसे पुरूष के समान ही स्वतंत्र तथा स्वाधीनता का अधिकार प्राप्त है। जिस प्रकार मनुष्य को अपनी गतिविधियों के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, इसी प्रकार स्त्री भी अपनी गतिविधियों के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान की अधिकारी है। पुरूष और स्त्री का दर्जा बराबर है, लेकिन एक जैसा नहीं है। वे एक अनुपम युगल हैं और एक-दूसरे के पूरक हैं। उनमें से प्रत्येक एक-दूसरे की सहायता करता है, इस प्रकार एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’ इस तरह संविधान निर्माता डाॅ. बी.आर . अम्बेडकर ने - ‘संविधान की प्रस्तावना तथा अवसर की समानता’ की बात कही।17 सन् 1942 की गोरी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण ‘वाइसराय कार्यकारी परिषद्’ के रूप में जब डाॅ. अम्बेडकर का चयन हुआ तो ‘श्रम मंत्रालय’ जैसे महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री के रूप में - ‘महिला श्रमिकों के लिए विशेष सहायता दिलाने, प्रसूति अवकाश की व्याख्या करने सहित मानवाधिकारों के लिए सतत कार्य किया।’18 बहरहाल यह कहा जा सकता है कि महिलाओं को अपने संघर्ष की लड़ाई खुद को लड़नी होगी। पुरूष प्रधान समाज में विकास की नई लकीर खींचने से ही वे समाज में अपना स्थान बना सकेगी। साथ ही, अतीत से चली आ रही अपनी उस भूमिका में परिवर्तन करना होगा, जिसमें कवयित्री महादेवी वर्मा ने कहा है कि - ‘नारी तेरी यही कहानी, आंचल में दूध आंखों में पानी।’
सन्दर्भ सूची1. तिवारी आर.पी. व शुक्ला डी.पी., भारतीय नारी वर्तमान समस्याएं और भावी समाधान, एपीएच पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृ. 172. व्यास राजेश कुमार, घूंघट की ओट में गुम पहचान, शरद कृषि मासिक पत्रिका, सितम्बर, 2010, पृ. 123. पाण्डेय करूणा, जाति एवं महिला सामाजिक प्रस्थिति (सामाजिक विमर्श, राजस्थान विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग का शोध पत्र), दिसम्बर, 2008, पृ. 60-624. सिंघी एन.के., घरेलू हिंसा पर प्रस्तुत शोध पत्र, विधिया, (महिला आलेख एवं सन्दर्भ केन्द्र) कार्यशाला, फरवरी, 20115. यादव राजेन्द्र, आदमी की निकाह में औरत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 13-146. पूर्वोक्त, पृ. 19-207. चन्देल धर्मवीर, मानवाधिकार, नेहरू और अम्बेडकर, पोइन्टर पब्लिकेशन, सन् 2011, पृ. 1098. पूर्वोक्त, पृ. 109-110 9. पूर्वोक्त, पृ. 110-11110. श्रीवास्तव सुधारानी, भारत में मानवाधिकार की अवधारणा, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सन् 2003, पृ. 114-11511. ‘सुदर्शन’ शेण्डे हरिदास रामजी, महिला अधिकार और शिक्षा, ग्रन्थ विकास जयपुर, सन् 2008, पृ. 2512. पूर्वोक्त, पृ. 3613. पूर्वोक्त, पृ. 37-3814. पुष्पा मैत्रीयी, गुनाह बेगुनाह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 201115. एम. लक्ष्मीकान्त, लोक प्रशासन, टाटा एम.सी. ग्रामहील पब्लिशिंग कम्पनी लि., नई दिल्ली, सन् 2008, पृ. 12216. गुप्ता नीलम, पहली बाधा पार, प्रथम प्रवक्ता, राष्ट्रीय पत्रिका, 1 अप्रैल, 2010, पृ. 717. चन्देल धर्मवीर, मानवाधिकार, नेहरू और अम्बेडकर, पोइन्टर पब्लिकेशन, सन् 2011, पृ. 2318. पूर्वोक्त, पृ. 150

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