भारतीय महिला की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन
डाॅ. धर्मवीर चन्देल’
भारतीय समाज में नारी की स्थिति समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलती रही है। समय के साथ उसकी स्थितियों में परिवर्तन आया है। वैदिक काल में नारी की स्थिति काफी मजबूत और प्रतिष्ठापूर्ण थी लेकिन धीरे-धीरे उसकी स्थितियों में बदलाव होने लगा। वक्त की आंधी ने महिला की स्थिति कमजोर व बेबसीपूर्ण स्थिति में पहुँचा दी। वैदिक काल में पुरुषों की सभा में शास्त्रार्थ करने वाली महिला बाद के कालखण्ड़ में घर की चारदीवारी के बीच कैद रहने वाली और पुरुष के पैर की जूती तक बना दी गई। वैदिक समाज में महिलाओं को पर्याप्त स्वतन्त्रता थी, वे अपना सुयोग्य साथ स्वयं चुनती थी लेकिन बाद के दौर में नारी का विवाह कम उम्र में होने लगा। माना जाता है कि वैदिक युग में महिलाओं का स्थान सम्मानीय था। मध्यकाल में उनकी स्थिति दयनीय हो गई, जबकि आधुनिक काल में महिलाएँ अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जूझ रही हैं। अपने हिस्से का आसमां लेने के लिए प्रयासरत है। अपने हाथों ही एक लम्बी लाइन खींचने की तैयारी में है। प्राचीन काल में विधवाओं की स्थिति दयनीय नहीं थी। सती प्रथा का भी प्रचलन नहीं था। बाद के समय में विधवा विवाह को कुछ जातियों ने समर्थन नहीं किया जबकि विधुर के पुनर्विवाह को अपनाया गया। ताकि पत्नी के देहान्त के बाद पति को किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़े। समाज ने पुरुष के सुख की सम्पूर्ण व्यवस्था की जबकि महिला को सदैव तिरस्कृत समझा गया। पति की मृत्यु के बाद उस स्थान का महिमामण्डन कर आय के नए जरिए खोजे गए।
देश की ताजा जनगणना सन् 2011 के अनुसार महिला की शैक्षणिक स्थिति काफी चिन्ताजनक है। देश में पुरुष साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर मात्र 65.46 प्रतिशत बनी हुई है। महिला साक्षरता दर को बढ़ाने के लिए उनमें जागरूकता व संगठित होने की आवश्यकता है। शैक्षणिक दृष्टि से महिला अब भी पिछड़ी हुई है और महिला शिक्षा के प्रसार की आज बहुत आवश्यकता है। पुरूष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति दिल दहलाने वाली बनी हुई है।1 मनुस्मृति में महिला का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया - ‘बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र के अधीन रखा गया है।’ हालांकि भारतीय संविधान ने नारी को पुरुष के समकक्ष माना है। सरकार की ओर से समाज में व्याप्त कुरीतियों मसलन दहेज प्रथा का विरोध, भ्रूण हत्या पर प्रतिबन्ध, लिंग परीक्षण पर पाबन्दी के प्रयासों का भारतीय समाज में कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि ये कुरीतियाँ ज्यादा फैल रही हैं। वर्तमान में महिलाओं को यह समझना होगा कि आज समाज में उनकी दयनीय स्थिति भगवान की देन न होकर समाज में चली आ रही परम्पराओं का परिणाम है। इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक वह खुद अपने सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में सुधार नहीं करेगी, तब तक समाज में उनका स्थान द्वितीय श्रेणी के नागरिक का ही बना रहेगा। महात्मा गांधी ने कहा था - ‘स्त्री तो पुरुष की सहचरी है, उसे पुरुष के समान ही मानसिक क्षमताएँ प्राप्त हैं। उसे पुरुष की गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है और पुरुष के समान ही स्वतंत्र और स्वाधीनता का अधिकार प्राप्त है। पुरुष और स्त्री का दर्जा बराबर है, लेकिन एक जैसा नहीं है। वे एक अनुपम युगल हैं और एक-दूसरे के पूरक हैं। उनमें से प्रत्येक एक-दूसरे की सहायता करते हैं, इस प्रकार एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’2 महिला सशक्तिकरण वर्ष 2001 के बाद महिलाओं में जबरदस्त जागृति आई लेकिन अभी भी सामन्तशाही के अवशेष भारतीय समाज में दिखाई देते हैं। आज भी कई परिवारों में लड़की के जन्म लेने के साथ ही उसके मुंह में तम्बाकू भरकर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है। ग्वालियर में अपनी नवजात बेटी के मुंह में तम्बाकू भरकर उसे मौत के घाट उतार देने का मामला हाल ही में सामने आया है। ग्वालियर के उपनगर मुरार क्षेत्र निवासी नरेन्द्र सिंह राणा पर उसकी नवजात पुत्री की हत्या का आरोप है।’ नरेन्द्र की पत्नी अनीता ने 16 अक्टूबर को एक स्वस्थ बालिका को जन्म दिया। अगले दिन उसके पिता ने जिद कर पुत्री को अपने पास सुलाया और वह सुबह मृत अवस्था में मिली। पोस्टमार्टम में मृत्यु के कारणों का खुलासा नहीं होने पर बिसरा जांच के लिए सागर स्थित विधि विज्ञान प्रयोगशाला भेजा गया। जहाँ स्पष्ट हुआ कि बालिका की मौत निकोटिन (तम्बाकू) के कारण हुई है।3 घटना से पता चलता है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में प्रवेश करने के बाद भी लोग 15-16वीं सदी में जीवन गुजार रहे हैं। इसी तरह की एक अन्य घटना में राजस्थान के जोधपुर जिले के एक अस्पताल में नर्सिंग स्टाॅफ की गलती के कारण नवजात बच्चे बदल गए। बच्चे बदलने से विचित्र सी स्थिति पैदा हो गई। जन्म लेने वाले बच्चों में एक लड़का एवं एक लड़की थे। लड़के को लेने के लिए दोनों पक्ष तैयार लेकिन लड़की लेने की किसी की इच्छा नहीं। इस पर दैनिक भास्कर समाचार पत्र ने - ‘सात दिन से मां व दूध को बिलखती मासूम’ शीर्षक से प्रकाशित समाचार में बताया कि ‘उम्मेद अस्पताल के कर्मचारियों की गलती की सजा महज एक सप्ताह पहले जन्मी मासूम भुगत रही है। अस्पताल में बच्चों की अदला-बदली होने के बाद से यह बच्ची नर्सरी में भर्ती है और अस्पताल प्रशासन इसकी असली मां की तलाश में जुटा है। ऐसे में इसे 7 दिन से न तो मां का प्यार नसीब हो रहा है, न ही उसका दूध।’ दोनों ही माताएं बच्ची को लेने के लिए तैयार नहीं हुई। न्यायालय के दखल के बाद बच्ची का डी.एन.ए. टेस्ट कराया गया, जिससे पता चला कि पूनम कंवर बच्ची की असली मां है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि पूनम कंवर को बच्ची को दूध पिलाने की हूक नहीं उठी लेकिन इसके बाद भी उसके पति ने कहा कि ‘दूध पिला सकती है लेकिन बच्ची को स्वीकार नहीं करेंगे।4 इसी तरह इसी साल अष्टमी को जहाँ एक ओर कन्याओं का पूजन किया जा रहा था, वहीं जयपुर के संसार चन्द्र रोड पर एक कन्या को जन्म लेने से पहले ही मार दिया गया। ये पहली घटना नहीं, इस नवरात्र के आठ दिन में तीन बच्चों को जन्म से पहले और एक को जन्म के बाद उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी गई। इससे पहले भी संसार चन्द्र रोड पर ही कचरा पात्र के पास करीब पांच माह का कन्या भू्रण भी कपड़े में लिपटा हुआ मिला था। इसका पता कचरा बीन रही दो महिलाओं को चला, उन्होंने पुलिस को सूचना दी।5 विभिन्न कुप्रथाओं व समस्याओं ने महिलाओं को दयनीय व हीन अवस्था में पहुंचा दिया है। पर्दा प्रथा के कारण महिला घर में बंदी बना दी गई। दहेज प्रथा ने पुत्री के जन्म को ही अभिशाप बना दिया। बाल विवाह ने विधवा समस्या व वेश्यावृत्ति को जन्म दिया। समाज में कुप्रथाओं के बढ़ने से महिला की स्थिति अधिक जटिल और संकट में घिर गई।6 भारत में आजादी के बाद महिला-पुरुष की समानता को कानूनी आधार प्रदान किया गया। अनिवार्य शिक्षा, हिन्दू मैरिज एक्ट, दहेज निषेध कानून, सती निषेध, समान कार्य समान वेतन आदि कानूनों द्वारा महिला विकास के सकारात्मक कदम उठाए गए। लेकिन यह भी सच है कि कानून द्वारा सामाजिक सुधार सम्भव नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है-जनमानस में परिवर्तन, महिला पुरुष की दृष्टि में प्रगतिशील सुधार। आज आर्थिक सशक्तिकरण के समस्त प्रयासों के बावजूद वास्तविकता यह है कि कुछ शिक्षित व जागरूक महिलाएँ ही सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रही हैं, जबकि अशिक्षित व निम्न वर्ग की महिलाओं की स्थिति ज्यों की त्यों है। समाज में महिलाओं की क्या स्थिति है, इस पर चिन्तन किए जाने की आवश्यकता है? दुनिया भर के नारी मुक्ति आन्दोलनों की गूंज और समता, समानता, आजादी जैसे छलावे भरे खूबसूरत नारे, भारत में तमाम महिला संगठनों की सक्रियता व प्रगतिशील कोशिश के बावजूद पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। आज भ्रूण हत्याएँ, गर्भ परीक्षण की दुकान पर जन्म से पूर्व ही खात्मे की कोशिश, बाल विवाह, दहेज, मृत्युभोज, पर्दा प्रथा, बलात्कार, यौन हिंसा, अत्याचार, शोषण, बेटी को उच्च शिक्षा का अभाव भारतीय समाज में विद्यमान है। इसी तरह महिला विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने की प्रक्रिया जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर पुरुष के समान महिलाओं को अधिकार प्राप्त नहीं है।7
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भारतीय राजनीति में आजादी के इतने वर्षों बाद भी महिला की भागीदारी बहुत कम बनी हुई है। कई दशकों बाद भी महिला को अभी तक लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का इन्तजार है। यह भी एक तथ्य है कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के बिल को रखने के दौरान सदन में किस तरह के व्यवहार व दुव्यवहार की घटनाएं सामने आती हैं। कभी तो बिल सदन में रखने के साथ ही फाड़ दिया जाता है, तो कभी पास नहीं करने के नए-नए तरीके समझाए जाते हैं। देश के प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा व कांग्रेस ने पार्टी के संगठन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव पास कर रखा है लेकिन इस नियम का ईमानदारी से पालन नहीं हो पाता। फौरी तौर पर घोषणाएँ कर दी जाती हैं लेकिन यथार्थ के धरातल पर उन्हें अमलीजामा नहीं पहनाया जाता। यह भी एक कड़वा सच है कि वे महिलाएं ही राज्य में मुख्यमंत्री बन पाई हैं, जिनकी पार्टी उनके जेबी संगठन या उनके दारोमदार पर चलती हैं। 28 राज्यों वाले देश में वर्तमान समय में कांग्रेस पार्टी से सिर्फ एक दिल्ली में शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनी हुई है जबकि भाजपा से तो वर्तमान समय में एक भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है। भाजपा की स्थापना सन् 1981 से लेकर अब तक सिर्फ तीन राज्यों में ही महिला मुख्यमंत्री रही है, जिसमें से मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री उमा भारती को तो बीच सत्र में ही हटना पड़ा था। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे जरूर पांच साल राज्य की मुख्यमंत्री रही। जबकि अपने दम पर पार्टी चलाने वाली उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती तीन बार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार और तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता ने अपने दम पर सरकार चलाई है।
देश के प्रथम आम चुनाव 1952 से लेकर अभी तक सिर्फ 14 महिलाओं को ही मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ है। भारत में पहली बार अक्टूबर, 1963 में सुचेता कृपलानी को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद नन्दनी सतपते को कांग्रेस ने उड़ीसा का मुख्यमंत्री बनाया। वे उड़ीसा की पहली और अभी तक की आखरी महिला मुख्यमंत्री के रूप में जानी जाती हंै। गोवा में अगस्त, 1973 में शशिकला को अपने पिता दयानन्द की आकस्मिक मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री का ताज सौंपा गया। इसके बाद फिर कभी वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाई। आसाम में कांग्रेस पार्टी ने दिसम्बर, 1980 में सैयद अनवर तैमूर को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन वे करीब छह महीने ही मुख्यमंत्री रहे। तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एम.जी. रामचन्द्रन की मृत्यु के बाद ए.आई.डी.एम.के. ने उनकी पत्नी जानकी रामचन्द्रन को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वे 7 जनवरी, 1988 से 30 जनवरी, 1988 तक ही मुख्यमंत्री रह सकीं। बाद के दौर में ए.आई.डी.एम.के. को मजबूत कर जयललिता (1991-1966, 14 मई, 2001 - 16 सितम्बर, 2001, 2002-2006 और 2011 से निरन्तर) ने तमिलनाडू में सरकार बनाईं। हालांकि, जयललिता का शासन विवादों की छाया से मुक्त नहीं हो पाया, उन पर कई तरह के आरोप लगते रहे।
इसी तरह 13 जून, 1995 को मायावती ने भाजपा के समर्थन से पहली बार उत्तरप्रदेश में सरकार बनाई और देश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। इसके बाद वे (21 मार्च, 1997-12 सितम्बर, 1997, 2002-2003 और 2007 से लेकर 2012 तक) उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। देश के प्रख्यात राजनीतिक चिंतक एवं पत्रकार रामबहादुर राय ने मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार के पाँच वर्ष पूरे होने पर लिखा - ‘बसपा की मायावती सरकार से उत्तरप्रदेश को स्थिर शासन मिला, क्योंकि 2007 के विधानसभा चुनाव में 16 साल बाद एक दल को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था।’8 कांगे्रस पार्टी ने अप्रैल, 1996 से फरवरी, 1997 तक राजेन्द्र कौर भट्टल को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया। पंजाब के अब तक के इतिहास में वे इस सूबे की एक मात्र महिला मुख्यमंत्री के रूप में पहचान रखती हंै। इधर, बिहार के मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में फंसने और भ्रष्टाचार में धंसने के आरोप के चलते उन्होंने मुख्यमंत्री का पद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंपा। राबड़ी देवी को (1997-1999, 1999-2000 और 2000-2005) बिहार का तीन बार मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा के आपसी विवाद के चलते सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन कुछ महीने बाद ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा की करारी हार हो गई। भाजपा का बहुमत नहीं आया, इस कारण सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। 1998 में कांग्रेस की शीला दीक्षित को दिल्ली के मुख्यमंत्री की गद्दी मिली तब से लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी हुई हैं। मध्यप्रदेश में उमा भारती 2003-04 तक भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री रहीं। राजस्थान में वसुन्धरा राजे 2003-2008 और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी में वामपंथियों की 34 साल पुरानी सरकार को हटाकर अपना झण्ड़ा फहरा दिया। लोकसभा में 60 और राज्यसभा में 24 महिला सांसद जनता के प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
इसी तरह संविधान के 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया तथा लगभग 15 लाख महिलाओं को ग्राम पंचायतों तथा शहरी निकायों के चुनावों में भागीदारी का अवसर प्रदान किया। इसके फलस्वरूप देश के विभिन्न राज्यों में 43 प्रतिशत तक महिला प्रतिनिधि चुनकर सशक्तिकरण के मार्ग की ओर अग्रसर हुई। इस समय देशभर में कुल पंचायतों के लगभग 28 लाख, 10 हजार प्रतिनिधि हैं, जिनमें से लगभग 36 प्रतिशत महिलाएं हैं। राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 4 जून, 2009 को संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए घोषणा की थी कि ‘पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक करने के लिए संवैधानिक संशोधन किया जाएगा।’ संविधान के अनुच्छेद 243(डी) के तहत यह संशोधन होगा। सम्पूर्ण देश में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद पंचायतीराज में महिलाओं की भागीदारी बढ़कर 14 लाख होने का अनुमान है।9
लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति:
भारत में लोकसभा के प्रथम चुनाव 1952 में हुए। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार लोकसभा कुल सदस्य संख्या 552 से अधिक नहीं होगी। वर्तमान में लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 हैं, जिसमें दो आंग्ल भारतीय मनोनीत होते हैं। लोकसभा में प्रथम निर्वाचन से आज तक के निर्वाचनों में महिला सांसदों के निर्वाचन की स्थिति निम्नानुसार रही हैं-
वर्ष कुल सदस्य संख्या महिला सदस्य संख्या महिला सदस्यों का प्रतिशत
1952 499 22 4.4
1957 500 27 5.4
1962 503 34 6.8
1967 523 31 5.9
1971 521 22 4.2
1977 544 19 3.3
1980 544 38 5.2
1984 544 44 8.1
1989 517 27 5.2
1991 544 39 7.2
1996 543 39 7.2
1998 543 43 7.9
1999 545 49 8.65
2004 539 44 8.16
2009 545 60 11.0
उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर समझा जा सकता है कि लोकसभा में महिलाओं की उपस्थिति कभी भी ग्यारह प्रतिशत से अधिक नहीं रही।
केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं की उपस्थिति
भारत में लोकसभा निर्वाचन में महिलाओं की भागीदारी की बात करते हैं तो इनकी स्थिति अत्यन्त कमजोर रही है। स्वतंत्रता के पश्चात् निर्वाचन की शुरूआत 1952 से लेकर लोकसभा चुनाव 2009 तक की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि लोकसभा में निर्वाचित होकर पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या वर्ष 2009 में सर्वाधिक 60 रही अर्थात् 11 प्रतिशत महिलाएं निर्वाचित हुई, जो कि अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। महिलाओं के राजनीति में आगे नहीं बढ़ने देने के अनेक कारण हैं-राजनीतिक दल महिलाओं को राजनीति में आगे बढाने की बात तो करते हैं लेकिन उनकी इच्छाशक्ति नहीं है। साथ ही, वे पुरुष प्रधान समाज की भूमिका को कम होने देना नहीं चाहते हैं। कई राजनीतिक दलों के नेता सोचते हैं कि महिलाओं को टिकट देने से यदि वे निर्वाचित होंगी तो पुरुषों का राजनीति से सफाया हो जाएगा।
पिछले निर्वाचनों पर दृष्टि डालें और केन्द्रीय सरकार में मंत्रिपरिषद में स्थान बनाने वाली महिलाओं की संख्या सुखद नहीं है।
वर्ष मंत्रियों की कुल संख्या कुल महिला मंत्रियों की संख्या कुल निर्वाचित महिला सांसद
केबिनेट मंत्री राज्य मंत्री (स्वतंत्र) राज्य मंत्री केबिनेट मंत्री राज्य मंत्री (स्वतंत्र) राज्य मंत्री
2002 32 41 00 73 02 06 00 08 49
2004 33 45 00 78 02 06 00 08 44
2009 34 07 37 78 03 01 04 08 60
आंकड़ों से पता चलता है कि केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में सन् 2002, 2004 और 2008 की मंत्रिपरिषद में सिर्फ 8 महिलाओं को ही मौका मिल पाया है।
राजस्थान विधानसभा में महिला प्रतिनिधि
राजस्थान में प्रथम विधानसभा चुनावों 1952 से लेकर वर्ष 2008 तक हुए तेरह विधानसभा चुनावों पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि प्रदेश में महिलाओं की जनसंख्या लगभग आधी है इसके बावजूद विधानसभा में प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य रहा है। हालांकि राजस्थान के सामन्तशाही वाले प्रदेश में राज्यपाल, मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष भी महिलाएं रहीं हैं, इसके बावजूद उनकी उपस्थिति नाममात्र की बनी हुई है।
क्र.सं. कुल सदस्य संख्या चुनाव लड़ने वाली कुल महिलाएं निर्वाचित महिलाएं प्रतिशत
1952 100 04 02 1.25
1957 176 21 09 5.11
1962 176 15 08 4.54
1967 184 19 07 3.80
1972 184 17 13 7.06
1977 200 31 08 4.00
1980 200 31 10 5.00
1985 200 45 17 8.50
1990 200 93 11 5.50
1993 200 97 10 5.5
1998 200 69 15 7.0
2003 200 118 12 6.0
2008 200 155 25 12.5
बहरहाल देश की राष्ट्रपति, कांग्रेस पार्टी की प्रमुख और विपक्ष की नेता, कई राज्यों की राज्यपाल व मुख्यमंत्री महिलाएं बनी हुई हैं। इसके बाद भी समाज की आधी आबादी (महिलाओं) की स्थिति दर्दनाक है। उन्हें अपने हिस्से के आसमां का इन्तजार हैं। किसी शायर ने कहा है कि -
‘‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा।’’
लगता है आज भी पुरुष प्रधान भारतीय समाज में महिलाओं को किसी ‘दीदावर’ का इन्तजार है, जो उनकी स्थिति में परितर्वन कर उनको माकूल स्थान दिला सकें।
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सन्दर्भ सूची
1. भारत की जनगणना, 2011
2. चन्देल धर्मवीर, मानवाधिकार, नेहरू और अम्बेडकर, पोइन्टर पब्लिशर्स, वर्ष 2011, पृष्ठ 23
3. दैनिक नवज्योति, नवजात बेटी को तम्बाकू खिलाकर मारा, 11 अप्रैल 2012, पृष्ठ 1
4. दैनिक भास्कर, सात दिन से मां व दूध को बिलखती मासूम, जयपुर संस्करण 2 अप्रैल, 2012, पृष्ठ 1
5. पूर्वोक्त
6. जैन, एस. जैकेयूट (स), वूमेन इन पाॅलिटिक्स, ए.ओ. विले, इन्टर साइन्स पब्लिकेशन, न्यूयार्क, जोन विले एण्ड सन्स, 1974, पृष्ठ 5-6
7. मिश्र, एस.एन., जुलाई-दिसम्बर 2011, पृष्ठ 157
8. राय रामबहादुर, अंधे कुएं में पड़ा यह चुनाव, प्रथम प्रवक्ता, 1-15 मार्च, 2012, पृष्ठ 8
9. चन्देल धर्मवीर, चतुर्वेदी नत्थीलाल, भारत में पंचायतीराज सिद्धान्त एवं व्यवहार, आविष्कार पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, सन् 2012, पृष्ठ 183
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